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________________ बत्तीसवाँ अध्ययन : प्रमादस्थान ५४३ [१३] जैसे बिल्ली के निवासस्थान के पास चूहों का निवास प्रशस्त नहीं होता, इसी प्रकार स्त्रियों के निवासस्थान के मध्य (पास) में ब्रह्मचारी का निवास भी उचित नहीं है। १४. न रूव-लावण्ण-विलास-हासंन जंपियं इंगिय-पेहियं वा। इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता दह्र ववस्से समणे तवस्सी॥ [१४] श्रमण तपस्वी साधु स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, आलाप, इंगित (चेष्टा) और कटाक्ष वाले नयनों को मन में निविष्ट (स्थापित) करके देखने का अध्ययवसाय (उद्यम) न करे। १५. अदंसणं चेव अपत्थणं च अचिन्तणं चेव अकित्तणं च। इत्थीजणस्सारियझाणजोग्गं हियं सया बम्भवए रयाणं॥ [१५] जो ब्रह्मचर्य में सदा रत हैं, उनके लिए स्त्रियों के सम्मुख अवलोकन न करना, उनकी इच्छा (या प्रार्थना) न करना, चिन्तन न करना, उनके नाम का कीर्तन (या वर्णन) न करना हितकर है, तथा आर्य (सम्यक्धर्म) ध्यान (आदि की साधना) के लिए योग्य है। १६. कामं तु देवीहि विभूसियाहिं न चाइया खेभइउं तिगुत्ता। तहा वि एगन्तहियं ति नच्चा विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो॥ _[१६] माना कि तीन गुप्तियों से गुप्त मुनियों को (वस्त्रालंकारादि से) अलंकृत देवियाँ (अप्सराएँ) भी विक्षुब्ध नहीं कर सकती हैं, तथापि (भगवान् ने) एकान्त हित जान कर मुनि के लिए विविक्त (स्त्रीसम्पर्करहित एकान्त) वास प्रशस्त (कहा) है। १७. मोक्खाभिकंखिस्स वि माणवस्स संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे। नेयारिसं दुत्तरमत्थि लोए जहित्थिओ बालमणोहराओ॥ [१७] मोक्षाभिकांक्षी, संसारभीरु और धर्म में स्थित मानव के लिए लोक में इतना दुस्तर कुछ भी नहीं है, जितनी कि अज्ञानियों के मन को हरण करने वाली स्त्रियाँ दुस्तर हैं। १८. एए य संगे समइक्कमित्ता सुहुत्तरा चेव भवन्ति सेसा। जहा महासागरमुत्तरित्ता नई भवे अवि गंगासमाणा। [१८] इन (उपर्युक्त स्त्री-विषयक) संगों को सम्यक् अतिक्रमण (पार) करने पर (उसके लिए) शेष सारे संसर्गों का अतिक्रमण वैसे ही सुखोत्तर (सुख से पार करने योग्य) हो जाता है, जैसे कि महासागर को पार करने के बाद गंगा सरीखी नदी का पार करना आसान होता है। विवेचन—ब्रह्मचारी के लिए स्त्रीसंग सर्वथा त्याज्य प्रस्तुत सात गाथाओं (१२ से १८ तक) में रागद्वेषादि शत्रुओं को परास्त करने हेतु स्त्रीसंसर्ग से सदैव दूर रहने का संकेत किया है। अर्थात् ब्रह्मचारी को अपना आवासस्थान, अपना आसन, और अपना सम्पर्क स्त्रियों से रहित एकान्त में रखना चाहिए। यदि विविक्त स्थान में भी स्त्रियाँ आ जाएँ तो साधु को चाहिए कि वह उनके रूप, लावण्य, हास्य, मधुर आलाप, चेष्टा एवं कटाक्ष आदि को अपने चित्त में बिलकुल स्थान न दे, और न कामराग की दृष्टि से उनकी ओर देखे, न चाहे, और न स्त्रीसम्बन्धी किसी प्रकार का चिन्तन या वर्णन करे। स्त्रीसंग को पार कर लिया तो
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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