SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 641
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययनसूत्र [११] जैसे प्रचुर ईंधन वाले वन में, प्रचण्ड वायु साथ लगा हुआ दावानल उपशान्त नहीं होता, इसी प्रकार अतिमात्रा में भोजन करने वाले साधक की इन्द्रियाग्नि (इन्द्रियों से उत्पन्न हुई रागरूपी अग्नि) शान्त नहीं होती । किसी भी ब्रह्मचारी के लिए प्रकाम भोजन कदापि हितकर नहीं होता । ५४२ विवेचन - प्रकाम रससेवन एवं अतिभोजन का निषेध — इन तीन गाथाओं राग-द्वेष-मोहवर्द्धक रसों एवं भोजन की अतिमात्रा का निषेध किया गया है। इनका फलितार्थ यह है कि राग-द्वेष एवं मोह को जीतने के लिए ब्रह्मचारी को दूध, दही, घी आदि रसों का तथा आहार का अतिमात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए क्योंकि रसों का अत्यधिक मात्रा में या बारबार सेवन करने से कामोद्रेक होता है, जिससे रागादिवृद्धि स्वाभाविक है, तथा अतिमात्रा में भोजन से धातु उद्दीप्त हो जाते हैं, प्रमाद बढ़ जाता है, शरीर पुष्ट, मांसल एवं सुन्दर होने पर राग, द्वेष, मोह का बढ़ना स्वाभाविक है। यहाँ रसों के सेवन करने का सर्वथा निषेध नहीं है । बृहद्वृत्तिकार कहते हैं कि वात आदि के प्रकोप के निवारणार्थ साधु के लिए रस सेवन करना विहित है। एक मुनि ने कहा है— अत्याहार को मेरा शरीर सहन नहीं करता, अतिस्निग्ध आहार से विषय (काय) उद्दीप्त होते हैं, इसलिए संयमी जीवनयात्रा चलाने के लिए उचित मात्रा में आहार करता हूँ, अतिमात्रा में भोजन नहीं करता । - दित्तिकरा : दो अर्थ – (१) दृप्ति अर्थात् धातुओं का उद्रेक करने वाले, (२) दीप्ति — अर्थात् — मोहाग्नि – ( कामाग्नि) को उद्दीप्त (उत्तेजित करने वाला। इसी का फलितार्थ बताया गया है कि जिसकी धातुएँ या मोहाग्नि उद्दीप्त हो जाती है, उसे कामभोग धर दबाते हैं । २ निष्कर्ष - ११वीं गाथा में प्रकाम भोजन के दोष बताकर उसे ब्रह्मचर्यघातक एवं ब्रह्मचारी के लिए त्याज्य बताया है।३ अब्रह्मचर्यपोषक बातों का त्याग : द्वितीय उपाय १. १२. विवित्तसेज्जासणजन्तियाण ओमासणाणं दमिइन्दियाणं । नरागसत्तू धरिसेइ चित्तं पराइओ बाहिरिवोसहेहिं ॥ [१२] जो विविक्त (स्त्री आदि से असंसक्त) शय्यासन से नियंत्रित (नियमबद्ध) हैं, जो अल्पभोजी हैं, जो जितेन्द्रय हैं, उनके चित्त को राग (-द्वेष) रूपी शत्रु पराभूत नहीं कर सकते, जैसे औषधों से पराजित (दबायी हुई) व्याधि शरीर को पुनः आक्रान्त नहीं कर सकती। १३. जहा बिरालावसहस्स मूले न मूसगाणं वसही पसत्था । एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे न बम्भयारिस्स खमो निवासो ॥ (क) रसाः क्षीरादिविकृतयः । प्रकामग्रहणं तु वाताऽदिक्षोभनिवारणाय रसा अपि निषेवितव्या एव निष्कारणसेवनस्य तु निषेध इति ख्यापनार्थम् । उक्तं च 'अच्चाहारो न सइइ, अतिनिद्धेण विसया उदिज्जंति । जायामायाहारो, तं पि पगामं ण भुंजामि ॥ ' - बृहद्वृत्ति, पत्र ६२५ २. दृप्ति: धातूद्रेकस्तत्करणशीला दृप्तिकराः, यदि वा दीप्तं दीपनं मोहानलज्वलनमित्यर्थः, तत्करणशीला दीप्तिकराः । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६२६
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy