SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 640
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बत्तीसवाँ अध्ययन प्रमादस्थान ५४१ की उत्पत्ति किससे होती है? कर्म की उत्पत्ति मोह से होती है, कर्मों के बीज बोते हैं— जीव के राग और द्वेष । निष्कर्ष यह है कि जन्ममरणरूप दुःख को नष्ट करने के लिए मोह को नष्ट करना आवश्यक है। मोह उसी का नष्ट होता है, जिसके तृष्णा नहीं है तथा तृष्णा भी उसी की नष्ट होती है, जिसके जीवन में लोभ नहीं है, संतोष अपरिग्रहवृत्ति, निःस्पृहता एवं अकिंचनता है। क्योंकि तृष्णा और मोह का परस्पर अंडे और बगुली की तरह कार्य - कारण भाव है। कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ – आययणं - आयतन — उत्पत्तिस्थान । मोह— जो आत्मा को मूढताओं का शिकार बना देता है । यहाँ मोह का अर्थ - मिथ्यात्त्व दोष से दूषित अज्ञान है। तृष्णा मोह का उत्पत्तिस्थान क्यों ? - किसी मनोज्ञ पदार्थ की तृष्णा मन में उत्पन्न होती है तो उसको पाने के लिए व्यक्ति लालायित होता है और तब उसके वास्तविक ज्ञान पर पर्दा पड़ जाता है, कि यह पदार्थ मेरा नहीं, मैं इसको पाने के लिए क्यों छटपटाता हूँ ? चूंकि पदार्थ की तृष्णा होती ही ममता - मूर्च्छा है, वह अत्यन्त दुस्त्याज्य एवं रागप्रधान होती है। जहाँ राग होता है, वहाँ द्वेष अवश्यम्भावी है । अत: तृष्णा के आते ही राग-द्वेष लग जाते हैं, ये जब अनन्तानुबन्धी कषायरूप होते हैं तो मिथ्यात्व का उदय सत्ता में अवश्य हो जाता है। इस कारण उपशान्तकषाय वीतराग भी मिथ्यात्व ( गुणस्थान) को प्राप्त हो जाते हैं। कषाय, मिथ्यात्व आदि मोहनीय के ही परिवार के हैं। अतः तृष्णायतन मोह या मोहायतनभूत तृष्णा दोनों ही अज्ञानरूप हैं। ३ फलितार्थ - इसका फलितार्थ यह है कि इस विषचक्र को वही तोड़ सकता है जो अकिंचन है, बाह्याभ्यन्तरपरिग्रह से रहित है, वितृष्ण है, रागद्वेष - मोह से दूर है। रागद्वेष-मोह के उन्मूलन का प्रथम उपाय : अतिभोजन त्याग ९. रागं च दोसं च तहेव मोहं उद्धत्तुकामेण समूलजालं । जे जे वाया पडिवज्जियव्वा ते कित्तइस्सामि अहाणुपुव्वी ॥ [९] जो राग, द्वेष और मोह का समूल उन्मूलन करना चाहता है, उसे जिन-जिन उपायों को अपनाना चाहिए उन्हें मैं अनुक्रम से कहूँगा । १०. रसा पगामं न निसेवियव्वा पायं रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति दुमं जहा साउफलं व पक्खी ॥ [१०] रसों का प्रकाम ( अत्यधिक) सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि रस प्रायः साधक पुरुषों के लिए दृप्तिकर ( - उन्माद को बढ़ाने वाले) होते हैं । उद्दीप्तकाम मनुष्य को काम ( विषयभोग) वैसे ही उत्पीडित करते हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी । ११. जहा दवग्गी पउरिन्धणे वणे समारुओ नोवसमं उवेइ । विन्दियग्गी वि पगामभोइणो न बम्भयारिस्स हियाय कस्सई ॥ १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६२३ का तात्पर्य २. वही, पत्र ६२३ : मोहयति — मूढतां नयत्यात्मानमिति मोह : - अज्ञानम् । तच्चेह मिथ्यात्वदोषदुष्टं ज्ञानमेव गृह्यते "मोह: आयतनं - उत्पत्तिस्थानं यस्याः सा मोहायतना तृष्णा "' ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६२३
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy