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________________ - समीक्षात्मक अध्ययन/६३दुविहं खवेऊण य पुण्णपावं, निरंगणे सव्वओ विप्पमुक्के। तरित्ता समुदं व महाभवोघं, समुद्दपाले अपुणागमं गए। [उत्तराध्ययन २०/४] तुलना कीजिए यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्। तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनं परमं साम्यमुपैति॥ [मुण्डकोपनिषद् ३/१/३] इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में चिन्तन की विपुल सामग्री है। इस में यह भी प्रदर्शित किया गया है कि द्रव्यलिङ्ग को धारण करने मात्र से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। यह भाव गाथा इकतालीस से पचास तक में प्रदर्शित किये गये हैं। उनकी तुलना सुत्तनिपात-महावग्ग पवज्जासुत्त से सहज रूप से की जा सकती है। समुद्रयात्रा इक्कीसवें अध्ययन में समुद्रपाल का वर्णन है। इसलिये वह "समुद्रपालीय" नाम से विश्रुत है। इस अध्ययन में समुद्रयात्रा का महत्त्वपूर्ण उल्लेख है। उस युग में भारत के साहसी व्यापारी व्यापार हेतु दूर-दूर तक जाते थे। अतीत काल से ही नौकाओं के द्वारा व्यापार करने की परम्परा भारत में थी।१९७ ऋग्वेद में इस प्रकार की नौकाओं का वर्णन है, जो समुद्र में चलती थीं। नाविकों के द्वारा समुद्र में बहुत दूर जाने पर मार्ग विस्मृत हो जाने पर वे पूषा की संस्तुतिं करते थे जिससे सुरक्षित लौट सकें। बौद्ध जातकसाहित्य में ऐसे जहाजों का वर्णन है जिनमें पांच सौ व्यापारी एक साथ यात्रा करते थे।१९८ विनय-पिटक में 'पूर्ण' नाम के एक व्यापारी का उल्लेख है जिसने छः बार समुद्रयात्रा की थी। संयुक्तनिकाय१९९ नों द्वारा समुद्रयात्रा की जाती थी। दीघनिकाय२०१ में यह भी वर्णन है कि समुद्रयात्रा करने वाले व्यापारी अपने साथ कुछ पक्षी रखते थे। जब जहाज समुद्र में बहुत दूर पहुँच जाता है और आस-पास में कहीं पर भी भूमि दिखाई नहीं देती तब उन पक्षियों को आकाश में छोड़ दिया जाता। यदि टापू कहीं सन्निकट होता तो वे पक्षी लौट कर नहीं आते। और दूर होने पर वे पुनः इधर-उधर आकाश में चक्कर लगा कर आ जाते थे। भगवान् ऋषभदेव ने जलपोतों का निर्माण किया था।२०२ जैन साहित्य में जलपत्तन के अनेक उल्लेख मिलते हैं।२०३ सूत्रकृतांग२०४ उत्तराध्ययन२०५ आदि आगम साहित्य में कठिन कार्य की तुलना समुद्रयात्रा से की है। वस्तुतः उस युग में समुद्रयात्रा अत्यधिक कठिन थी। सूत्रकृतांग२०६ में लेप नामक गाथापति का उल्लेख है, जिस के पास अनेक यान थे। सिंहलद्वीप, जावा सुमात्रा प्रभृति स्थलों पर अनेक व्यापारीगण जाया करते थे। ज्ञाताधर्मकथासूत्र२०७ जिनपालित और जिनरक्षित गाथापति का वर्णन है, जिन्होंने बारह बार समुद्रयात्रा की थी। अरणक श्रावक आदि के यात्रावर्णन भी ज्ञाताधर्मकथा में हैं।२०८ व्यापारीगण स्वयं के यानपात्र भी रखते थे, जो एक स्थान से दूसरे स्थान तक माल लेकर जाते थे। १९७. ऋग्वेद १/२५/७, १/५६/२, १/११६/३, २/४८/३, ७/८८/३- ४ १९८. पण्डार जातक २/१२८, ५/७५ १९९. संयुक्तनिकाय २/११५, ५/५१ २००. अंगुत्तरनिकाय ४/२७ २०१. दीघनिकाय १/२२२ २०२. आवश्यकनियुक्ति २१४ २०३. (क) बृहत्कल्प, भाग २, पृ. ३४२ (ख) आचारांगचूर्णि पृ. २८१२०४. सूत्रकृतांग १/११/५ २०५. उत्तराध्ययन ८/६ २०६. सूत्रकृतांग-२/७/६९. . २०७. ज्ञाताधर्मकथा-१/९. २०८. ज्ञाताधर्मकथा-१/१७, पृष्ठ-२०१.
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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