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उत्तराध्यचन / ६२
प्रस्तुत अध्ययन में महानिर्ग्रन्थ अनाथ मुनि का वर्णन होने से इसका नाम 'महानिर्ग्रन्थीय' रखा गया है। सम्राट् श्रेणिक ने मुनि के दिव्य और भव्य रूप को निहार कर प्रश्न किया—यह महामुनि कौन हैं ? और क्यों श्रमण बने हैं ? मुनि ने उत्तर में अपने आपको 'अनाथ' बतायां । अनाथ शब्द सुनकर राजा श्रेणिक अत्यन्त विस्मित हुआ। इस रूप लावण्य के धनी का अनाथ होना उसे समझ में नहीं आया। मुनि ने अनाथ शब्द की विस्तार से व्याख्या प्रस्तुत की। राजा ने पहली बार सनाथ और अनाथ का रहस्य समझा। उसके ज्ञान चक्षु खुल गये। उसने निवेदन किया— मैं आप से धर्म का अनुशासन चाहता हूँ। राजा श्रेणिक को मुनि ने सम्यक्त्व-दीक्षा प्रदान की।
प्रस्तुत आगम में मुनि के नाम का उल्लेख नहीं है पर प्रसंग से यहाँ नाम फलित होता है। दीघनिकाय में 'मुण्डीकुक्षि' के नाम पर 'मद्दकुच्छि' यह नाम दिया है। १९५ डा. राधाकुमुद बनर्जी ने मण्डीकुक्षि उद्यान में राजा श्रेणिक के धर्मानुरक्त होने की बात लिखी है। १९६ साथ ही प्रस्तुत अध्ययन की ५८ वीं गाथा में 'अणगारसिंह' शब्द व्यवहृत हुआ है। उस शब्द के आधार से वे अणगारसिंह से भगवान् महावीर को ग्रहण करते हैं पर उनका यह मानना सत्य-तथ्य से परे है। क्योंकि प्रस्तुत अध्ययन में मुनि ने अपना परिचय देते हुए अपने को कौशाम्बी का निवासी बताया है। सम्राट् श्रेणिक का परिचय हमने अन्य आगमों की प्रस्तावना में विस्तार से दिया है, इसलिए यहाँ विस्तृत रूप से उसकी चर्चा नहीं की जा रही है।
प्रस्तुत अध्ययन में आई हुई कुछ गाथाओं की तुलना धम्मपद, गीता और मुण्डकोपनिषद् आदि से की जा सकती है—
" अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली।
अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नन्दणं वर्ण ॥"
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अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठियसुपट्ठिओ ॥"
तुलना कीजिए—
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अता हि अत्तनो नाथो को हि नाथो परो सिया।
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अत्तना व सुदन्तेन, नाथं लभति दुल्लभं ॥"
अतना व कतं पापं अतर्ज अत्तसम्भवं ।
अभिमन्धति दुम्मेधं वजिरं वस्ममयं मणिं ॥ "
असना व कंत पापं, अतना संकिलिस्सति ।
अत्तना अकतं पापं असना व विसुज्झति ॥"
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" न तं अरी कण्ठछेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा | से नाहिई मच्छुमुहं तु पत्ते पच्छाणुतावेण दयाविहूणे ॥"
तुलना कीजिए—
दिसो दिसं यं त कयिरा, वेरी वा पन वैरिनं । मिच्छापणिहितं चित्तं, पापियो नं ततो करे॥
१९५. दीघनिकाय भाग २, पृ. १९
१९६. हिन्दू सिविलाइजेशन, पू. १८७
[उत्तरा २०/३६]
[उत्तरा २०/३७]
[धम्मपद १२/४५,९]
[उत्तर. २०/४८ ]
[ धम्मपद ३/१०]