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________________ - समीक्षात्मक अध्ययन/६१को सहज स्मृति हो आई-मैं भी पूर्वजन्म में ऐसा ही साधु था। उन्हें भोग बन्धन-रूप प्रतीत हुए। संसार में रहना उन्हें अब असह्य हो गया। माता-पिता ने श्रामण्य-जीवन की कठोरता समझाई-वत्स! श्रामण्य-जीवन का मार्ग फूलों का नहीं, काँटों का है। नंगे पैरों, जलती हुए आग पर चलने के सदृश है। साधु होना लोहे के जव चबाना है, दहकती ज्वालाओं को पीना है। कपड़े के थैले को हवा से भरना है, मेरु पर्वत को तराजू पर रखकर तोलना है, महासमुद्र को भुजाओं द्वारा तैरना है। इतना ही नहीं तलवार की धार पर नंगे पैरों से चलना है। इस उग्र श्रमण जीवन को धीर, वीर, गंभीर साधक ही पार कर सकता है। तुम तो बहुत ही सुकुमाल हो। इस कठोर श्रमणचर्या का कैसे पालन कर सकोगे? उत्तर में मृगापुत्र ने नरकों की दारुण वेदना का चित्रण प्रस्तुत किया। नरकों में इस जीव ने कितनी ही असह्य वेदनाओं को सहन किया है। अन्त में माता-पिता कहते हैंरुग्ण होने पर वहाँ कौन चिकित्सा करेगा? मृगापुत्र ने कहा-जब जंगल में पशु रुग्ण होते हैं, उनकी कौन चिकित्सा करता है ? वे पहले की तरह ही स्वस्थ हो जाते हैं। वैसे ही मैं भी पूर्ण स्वस्थ हो जाऊँगा। अन्त में माता-पिता की अनुमति से मृगापुत्र ने संयम ग्रहण किया और पवित्र श्रामण्य-जीवन का पालन कर सिद्धि को वरण किया। . प्रस्तुत अध्ययन में आई एक गाथा की तुलना बौद्ध ग्रन्थ 'महावग्ग' में आई हुई गाथा से कर सकते देखिये " जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य। अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जन्तवो॥" [उत्तरा. १९/१५] तुलना कीजिए "जातिपि दुक्ख जरापि दुक्खा। व्याधिपि दुक्खा मरणंपि दुक्खं ॥" [महावग्ग-१/६/१९] निर्ग्रन्थ : एक चिन्तन बीसवें अध्ययन का नाम "महानिर्ग्रन्थीय" है। जैन श्रमणों का आगमिक प्राचीन नाम निर्ग्रन्थ है। आचार्य अगस्त्यसिंह ने लिखा है-ग्रन्थ का अर्थ बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह है। जो उस ग्रन्थ से पूर्णतया मुक्त होता है, वह निर्ग्रन्थ है।१९२ निर्ग्रन्थ की व्याख्या इस प्रकार की गई है जो राग-द्वेष से रहित होने के कारण एकाकी है, बुद्ध है, आश्रव-रहित है, संयत है, समितियों से युक्त है, सुसमाहित है, आत्मवाद का ज्ञाता है, विज्ञ है, बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के स्रोत जिसके छिन्न हो चुके हैं, जो पूजा-सत्कार, लाभ का अर्थी (इच्छुक) नहीं है, केवल धर्मार्थी है, धर्मविद् है, मोक्षमार्ग की ओर चल पड़ा है, साम्यभाव का आचरण करता है, दान्त है, बन्धनमुक्त होने के योग्य है, वह निर्ग्रन्थ है।९३ आचार्य उमास्वाति ने लिखा है-जो कर्मग्रन्थि के विजय के लिए प्रयास करता है, वह निर्ग्रन्थ है।१९४ १९२. निग्गंथाणं ति विप्पमुक्कत्ता निरूविजति। -दशवकालिक, अगस्त्यसिंह चूर्णि, पृष्ठ ५९ १९३. सूत्रकृतांग १/१६/६ १९४. ग्रन्थः कर्माष्टविधं, मिथ्यात्वाविरतिदुष्टयोगाश्च । तजयहेतोरशठं, संयतते यः स निर्ग्रन्थः॥ -प्रशमरतिप्रकरण, श्लोक १४२
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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