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इकतीसवाँ अध्ययन : चरणविधि
५२९ में कृत-कारित-अनुमोदित रूप से प्रवृत्त होना, (१०) अजीव-असंयम (असंयमजनक या असंयमवृद्धिकारक वस्तुओं का ग्रहण एवं उपयोग, (११) प्रेक्षा-असंयम- (सजीव स्थान में उठना-बैठना, सोना आदि) (१२) उपेक्षा-असंयम-(गृहस्थ के पापकर्मों का अनुमोदन करना;) (१३) अपहृत्य-असंयम-(अविधि से परठना), (१४) प्रमार्जना-असंयम-(वस्त्र-पात्रादि का प्रमार्जन न करना) (१५) मन:असंयम-(मन में दुर्भाव रखना), (१६) वचन असंयम-(दुर्वचन बोलना), (१७) काय-असंयम (गमनागमनादि में असंयम रखना)।
___ उपर्युक्त १७ प्रकार के असंयम से निवृत्त होना और १७ प्रकार के संयम में प्रवृत्त होना साधु के लिए आवश्यक है। अठारहवां, उन्नीसवां और वीसवां बोल
१४. बम्भम्मि नायज्झयणेसु ठाणेसु य ऽसमाहिए।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले॥ [१४] (अठारह प्रकार के) ब्रह्मचर्य में, (उन्नीस) ज्ञातासूत्र के अध्ययनों में, तथा बीस प्रकार के असमाधिस्थानों में जो भिक्ष सदा उपयोग रखता है. वह संसार में नहीं रुकता।
विवेचन–अठारह प्रकार का ब्रह्मचर्य-देव सम्बन्धी भोगों का मन-वचन-काया से स्वयं सेवन करना, दूसरों से कराना और करते हुए को भला जानना, ये नौ भेद वैक्रिय शरीर सम्बन्धी अब्रह्मचर्य के होते हैं। इसी प्रकार नौ भेद मनुष्य-तिर्यञ्चसम्बन्धी औदारिक भोग-सेवनरूप अब्रह्मचर्य के समझ लेने चाहिए। कुल मिला कर अठारह प्रकार के अब्रह्मचर्य से विरत होना और अठारह प्रकार के अब्रह्मचर्य में प्रवृत्त होना साधु के लिए आवश्यक है।रे ।
ज्ञाताधर्मकथा के १९ अध्ययन–(१) उत्क्षिप्त (मेघकुमारजीवन), (२) संघाट, (३) अण्ड, (४) कूर्म, (५) शैलक, (६) तुम्ब, (७) रोहिणी, (८) मल्ली, (९) माकन्दी, (१०) चन्द्रमा, (११) दावदव, (१२) उदक, (१३) मण्डूक, (१४) तेतलि, (१५) नन्दीफल, (१६) अवरकंका, (१७) आकीर्णक, (१८) सुंसुमादारिका, (१९) पुण्डरीक। उक्त उन्नीस उदाहरणों के भावानुसार संयम-साधना में प्रवृत्त होना तथा इनसे विपरीत असंयम से निवृत्त होना साधुवर्ग के लिए आवश्यक है।
बीस असमाधिस्थान-(१) द्रुत-द्रुतचारित्व, (२) अप्रमृज्यचारित्व, (३) दुष्प्रमृज्यचारित्व, (४) अतिरिक्तशय्यासनिकत्व (अमर्यादित शय्या और आसन), (५) रालिकपराभव (गुरुजनों का अपमान), (६) स्थविरोपघात (स्थविरों की अवहेलना), (७) भूतोपघात, (८) संज्वलन (क्षण-क्षण-बार-बार क्रोध करना), (९) दीर्घ कोप (लम्बे समय तक क्रोध युक्त रहना), (१०) पृष्ठमांसिकत्व (निन्दा, चुगली), (११) अभीक्ष्णावभाषण (सशंक होने पर भी निश्चित भाषा बोलना), (१२) नवाधिकरण-करण, (१३) उपशान्तकलहोदीरण, (१४) अकालस्वाध्याय, (१५) सरजस्कपाणि-भिक्षाग्रहण, (१६) शब्दकरण (प्रहररात्रि बीते विकाल में जोर-जोर से बोलना), (१७) झंझाकरण (संघविघटनकारी वचन बोलना), (१८) कलहकरण १. (क) आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति, (ख) समवायांग समवाय १७ २. समवायांग, समवाय १८ ३. (क) ज्ञाताधर्मकथा सूत्र अ. १ से १९ तक, (ख) समवायांग, समवाय १९