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________________ ५२८ उत्तराध्ययनसूत्र विवेचन-तेरह क्रियास्थान–क्रियाओं के स्थान अर्थात् कारण को क्रियास्थान कहते हैं। वे क्रियाएँ १३ हैं-(१) अर्थक्रिया, (२) अनर्थक्रिया, (३) हिंसाक्रिया, (४) अकस्माक्रिया, (५) दृष्टिविपर्यासक्रिया, (६) मृषाक्रिया, (७) अदत्तादानक्रिया, (८) अध्यात्मक्रिया (मन से होने वाली शोकादिक्रिया), (९) मानक्रिया, (१०) मित्रक्रिया (प्रियजनों को कठोर दण्ड देना), (११) मायाक्रिया, (१२) लोभक्रिया, और (१३) ईर्यापथिकी क्रिया (अप्रमत्त संयमी को गमनागमन से लगने वाली क्रिया)। संयमी साधक को इन क्रियाओं से बचना चाहिए; तथा ईर्यापथिकी क्रिया में सहजभाव से प्रवृत्त होना चाहिए। चौदह भूतग्राम-सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञीपंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय, इन सातों के पर्याप्त और अपर्याप्त मिला कर कुल १४ भेद जीवसमूह के होते हैं। साधु को इनकी विराधना या किसी प्रकार की पीड़ा देने से बचना और इनकी दया व रक्षा में प्रवृत्त होना चाहिए। ___ पन्द्रह परमाधार्मिक-(१) अम्ब, (२) अम्बरीष, (३) श्याम, (४) शबल, (५) रौद्र, (६) उपरौद्र, (७) काल, (८) महाकाल, (९) असिपत्र, (१०) धनुः, (११) कुम्भ, (१२) बालुक, (१३) वैतरणी, (१४) खरस्वर, (१५) महाघोष। ये १५ परमाधार्मिक असुर नारक जीवों को मनोविनोद के लिए यातना देते हैं। जिन संक्लिष्ट परिणामों से परमाधार्मिक पर्याय प्राप्त होती है, उनमें प्रवृत्ति न करना, उत्कृष्ट परिणामों में प्रवृत्त होना साधु के लिए आवश्यक है। सोलहवां और सत्रहवां बोल १३. गाहासोलसएहिं तहा असंजमम्मि य। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले॥ [१३] जो भिक्षु गाथा-षोडशक और (सत्रह प्रकार के) असंयम में उपयोग रखता है; वह संसार में नहीं रुकता। विवेचन-गाथाषोडशक : आशय और नाम—यहाँ सूत्रकृताग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६ अध्ययन गाथाषोडशक शब्द से अभिप्रेत हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) स्वसमय-परसमय, (२) वैतालीय (३) उपसर्गपरिज्ञा, (४) स्त्री परिज्ञा, (५) नरकविभक्ति, (६) वीरस्तुति, (७) कुशील परिभाषा, (८) वीर्य, (९) धर्म, (१०) समाधि, (११) मार्ग, (१२) समवसरण, (१३) याथातथ्य, (१४) ग्रन्थ, (१५) आदानीय और (१६) गाथा। इन सोलह अध्ययनों में उक्त आचार-विचार का भली-भांति पालन करना तथा अनाचार और दुर्विचार से निवृत्त होना साधु के लिए आवश्यक है। सत्रह प्रकार का असंयम-(१-९) पृथ्वीकाय से लेकर पंचेन्द्रिय तक ९ प्रकार के जीवों की हिंसा १. (क) समवायांग, समवाय १३; (ख) सूत्रकृतांग २/२ २. समवायांग, समवाय १४ ३. (क) समवायांग, समवाय १५, वृत्ति, पत्र २८ (ख) गच्छाचारपइन्ना, पत्र ६४-६५ (ग) एत्थ जेहिं परमाधम्मियत्तणं भवति तेसु ठाणेसु जं वट्टितं ।'.....-जिनदासमहत्तर ४. (क) "गाहाए सह सोलस अज्झयणा तेसु सुत्तगडपढमसुतक्खंध-अज्झयणेसु इत्यर्थः।" जिनदासमहत्तर (ख) समवायांग, समवाय १६
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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