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इकतीसवाँ अध्ययन : चरणविधि
५२७ इसकी अवधि दो मास की है। (३) सामायिकप्रतिमा-प्रातः-सायंकाल निरतिचार सामायिक व्रत की साधना करता है। इससे दृढ़ समभाव उत्पन्न होता है। अवधि तीन मास। (४) पौषधप्रतिमा-अष्टमी आदि पर्व दिनों में चतुर्विध आहार आदि का त्यागरूप परिपूर्ण पौषधव्रत का पालन करना। अवधि-चार मास । (५) नियमप्रतिमा-पूर्वोक्त व्रतों का भलीभाँति पालन करने के साथ-साथ अस्नान, रात्रिभोजन त्याग, कायोत्सर्ग ब्रह्मचर्यमर्यादा आदि नियम ग्रहण करना। अवधि कम से कम १-२ दिन, अधिक से अधिक पांच मास। (६) ब्रह्मचर्यप्रतिमा-ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना। अवधि–उत्कृष्ट छह मास की। (७) सचित्तत्यागप्रतिमा-अवधि उत्कृष्ट ७ मास की। (८) आरम्भत्यागप्रतिमा-स्वयं आरम्भ करने का त्याग। अवधि-उत्कृष्ट ८ मास की। (९) प्रेष्यत्यागप्रतिमा-दूसरों से आरम्भ कराने का त्याग। अवधिउत्कृष्ट ९ मास (१०) उद्दिष्टभक्तत्यागप्रतिमा- इसमें शिरोमुण्डन करना होता है। अवधि–उत्कृष्ट १० मास (११) श्रमणभूतप्रतिमा-मुनि सदृश वेष तथा बाह्य आचार का पालन। अवधि–उत्कृष्ट ११ मास।
यारह पतिमाओं पर श्रद्धा रखना और अश्रद्धा तथा विपरीत प्ररूपणा से दूर रहना साधु के लिए आवश्यक
बारह भिक्षप्रतिमा (१) प्रथम प्रतिमा-एक दत्ति आहार, एक दत्ति पानी ग्रहण करना। अवधि एक मास । (२) द्वितीय प्रतिमा-दो दत्ति आहार और दो दत्ति पानी। अवधि १ मास। (३ से ७) वीं प्रतिमा क्रमशः एक-एक दत्ति आहार और एक-एक दत्ति पानी बढाते जाना। अवधि–प्रत्येक की एकएक मास की (८) अष्टम प्रतिमा-एकान्तर चौविहार उपवास करके ७ दिन-रात तक रहना। ग्राम के बाहर उत्तानासन, पाश्र्वासन या निषद्यासन से ध्यान लगाना। उपसर्ग सहन करना (९) नवम प्रतिमा-सात अहोरात्र तक चौविहार बेले-बेले पारणा करना। ग्राम के बाहर एकान्त स्थान में दण्डासन, लगुड़ासन या उत्कुटुकासन से ध्यान करना (१०) दसवीं प्रतिमा-सप्तरात्रि तक चौविहार तेले-तेले पारणा करना। ग्राम के बाहर गोदुहासन, आम्रकुब्जासन या वीरासन से ध्यान करना, (११) ग्यारहवीं प्रतिमा-एक अहोरात्र (आठ पहर) तक चौविहार बेले के द्वारा आराधना करना। नगर के बाहर खड़े होकर कायोत्सर्ग करना। (१२) बारहवीं प्रतिमा—यह प्रतिमा केवल एक रात्रि की है। चौविहार तेला करके आराधन करना। ग्राम से बाहर खड़े होकर, मस्तक को थोड़ा-सा झुकाकर, एक पुद्गल पर दृष्टि रख कर निर्निमेष नेत्रों से कायोत्सर्ग करना, समभाव से उपसर्ग सहना।
इन बारह प्रतिमाओं का यथाशक्ति आचरण करना, इन पर श्रद्धा रखना तथा इनके प्रति अश्रद्धा एवं अतिचार से और आचरण की शक्ति को छिपाने से दूर रहना साधु के लिए अनिवार्य है। तेरहवां, चौदहवाँ और पन्द्रहवां बोल .. १२. किरियासु भूयगामेसु परमाहम्मिएसु य।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले॥ [१२] (तेरह) क्रियाओं में, (चौदह प्रकार के) भूतग्रामों (जीवसमूहों) में, तथा (पन्द्रह) परमाधार्मिक देवों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता। १. (क) दशाश्रुतस्कन्ध टीका (ख) उत्तरा बृहदवृत्ति, भावविजयटीका (ग) समवायांग स. ११ २. (क) दशाश्रुतस्कन्ध, भगवतीसूत्र, हरिभद्रसूरिकृत पंचाशक। समवायांग, सम.१२