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होता है । अत: साधु को न तो स्वयं डरना चाहिए और न दूसरों को डराना चाहिए । '
आठवाँ, नौवाँ एवं दसवाँ बोल
१०.
मयेसु बम्भगुत्तीसु भिक्खुधम्मंमि दसविहे । जे भिक्खू जयई निच्छं से न अच्छइ मण्डले ॥
[१०] जो भिक्षु (आठ) मदस्थानों में, (नौ) ब्रह्मचर्य की गुप्तियों में और दस प्रकार के भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता ।
उत्तराध्ययनसूत्र
विवेचन — आठ मदस्थान — मानमोहनीयकर्म के उदय आत्मा का उत्कर्ष (अहंकार) रूप परिणाम मद है । उसके ८ भेद हैं—जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपोमद, श्रुतमद, लाभमद और ऐश्वर्यमद।' इन मदों से निवृत्ति और नम्रता - मृदुता में प्रवृत्ति साधु के लिए आवश्यक है।
ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियाँ- ब्रह्मचर्य की भलीभांति सुरक्षा के लिए ९ गुप्तियाँ ( बाड़) हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं— (१) विविक्तवसतिसेवन, (२) स्त्रीकथापरिहार, (३) निषद्यानुपवेशन, (४) स्त्री-अंगोपांगादर्शन, (५) कुड्यान्तरशब्दश्रवणादिवर्जन, (६) पूर्वभोगाऽस्मरण, (७) प्रणीतभोजनत्याग, (८) अतिमात्रभोजनत्याग और (९) विभूषापरिवर्जन । इनका अर्थ नाम से ही स्पष्ट है । साधु को ब्रह्मचर्यविरोधी वृत्तियों से निवृत्ति और संयमपोषक गुप्तियों में प्रवृत्ति करनी चाहिए।
दशविध श्रमणधर्म - (१) क्षान्ति, (२) मुक्ति (निर्लोभता), (३) आर्जव (सरलता), (४) मार्दव (मृदुता - कोमलता), (५) लाघव (लघुता - अल्प उपकरण), (६) सत्य, (७) संयम (हिंसादि आश्रव त्याग), (८) तप, (९) त्याग (सर्वसंगत्याग) और (१०) आकिंचन्य — निष्परिग्रहता । इन धर्मों में प्रवृत्ति और इनके विपरीत दस पापों से दूर रहना आवश्यक है।
ग्यारहवाँ-बारहवाँ बोल
११. उवासगाणं पडिमासु भिक्खूणं पडिमासु य ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले ॥
[११] जो भिक्षु उपासकों (श्रावकों) की प्रतिमाओं में और भिक्षुओं की प्रतिमाओं में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता है।
विवेचन—ग्यारह उपासक प्रतिमाएँ - ( १ ) दर्शनप्रतिमा- किसी प्रकार का राजाभियोग आदि आगार न रख कर निरतिचार शुद्ध सम्यग्दर्शन का पालन करना। इसकी अवधि १ मास की है । (२) व्रतप्रतिमा- इसमें व्रती श्रावक द्वारा ससम्यक्त्व पांच अणुव्रतादि व्रतों की प्रतिज्ञा का पालन करना होता है।
१. समवायांग, समवाय ७ वाँ
२. (क) 'मदो नाम मानोदयादात्मन उत्कर्षपरिणाम: । ' आवश्यक चूर्णि
३. (क) उत्तरा. अ. १६ के अनुसार यह वर्णन है। (ख) समवायांग, ९ वें समवाय में नौ गुप्तियों में कुछ अन्तर है। ४. (क) ये दशविध श्रमणधर्म नवतत्त्वप्रकरण के अनुसार हैं।
(ख) तत्त्वार्थसूत्र में क्रम और नाम इस प्रकार हैं—
"उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ।"
-अ ९/६