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इकतीसवाँ अध्ययन : चरणविधि
५२५ प्रस्तुत में साधु को आहार करने के ६ कारणों से आहार में प्रवृत्ति तथा आहार त्याग करने से निवृत्ति करना ही अभीष्ट है। सात बोल
९. पिण्डोग्गहपडिमासु भयट्ठाणेसु सत्तसु।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले॥ [९] जो भिक्षु (सात) पिण्डावग्रहों में, आहारग्रहण की सात प्रतिमाओं में और सात भयस्थानों में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता।
विवेचन—पिण्डावग्रह प्रतिमा : स्वरूप और प्रकार–सात पिण्डैषणाएँ—अर्थात् आहार से सम्बन्धित एषणाएँ हैं, जिनका वर्णन तपोमार्गगति अध्ययन (३० वाँ, गा. २५) में किया जा चुका है। संतुष्टा, असंसृष्टा, उद्धृता, अल्पलेपा, अवगृहीता, प्रगृहीता और उज्झितधर्मा, ये सात पिण्डैषणाएँ आहार से सम्बन्धित सात प्रतिमाएँ (प्रतिज्ञाएँ) हैं।२
अवग्रहप्रतिमा-अवग्रह का अर्थ स्थान है। स्थानसम्बन्धी सात प्रतिज्ञाएँ अवग्रहसम्बन्धी प्रतिमाएँ कहलाती हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) मैं अमुक प्रकार के स्थान में रहूँगा, दूसरे में नहीं। (२) मैं दूसरे साधुओं के लिए स्थान की याचना करूँगा, दूसरे द्वारा याचित स्थान में रहूँगा। यह प्रतिमा गच्छान्तर्गत साधुओं की होती है। (३) मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना करूँगा, मगर दूसरों द्वारा याचित स्थान में नहीं रहूँगा। यह प्रतिमा यथालन्दिक साधुओं की होती है। (४) मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना नहीं करूँगा, किन्तु दूसरों द्वारा याचित स्थान में रहूँगा। यह जिनकल्पावस्था का अभ्यास करने वाले साधुओं में होती है। (५) मैं अपने लिए स्थान की याचना करूँगा, दूसरों के लिए नहीं। ऐसी प्रतिमा जिनकल्पिक साधुओं की होती है। (६) जिसका स्थान मैं ग्रहण करूँगा, उसी के यहाँ 'पलाल' आदि का संस्तारक प्राप्त होगा तो लूँगा, अन्यथा सारी रात उकडू या नैषेधिक आसन से बैठा-बैठा बिता दूँगा। ऐसी प्रतिमा अभिग्रहधारी या जिनकल्पिक की होती है। (७) जिसका स्थान मैं ग्रहण करूँगा, उसी के यहाँ सहजभाव से पहले से रखा हुआ शिलापट्ट या काष्ठपट प्राप्त होगा तो उसका उपयोग करूँगा, अन्यथा उकडू या नैषेधिक आसन से बैठे-बैठे सारी रात बिता दूंगा। यह प्रतिमा भी जिनकल्पी या अभिग्रहधारी की ही होती है।
सप्त भयस्थान—नाम और स्वरूप—साधुओं को भय से मुक्त और निर्भयतापूर्वक प्रवृत्ति करना आवश्यक है। भय के कारण या आधार (स्थान) सात हैं-(१) इहलोकभय—स्वजातीय प्राणी से डरना, (२) परलोकभय–दूसरी जाति वाले प्राणी से डरना, (३) आदानभय-अपनी वस्तु की रक्षा के लिए चोर आदि से डरना, (४) अकस्मात्भय-अकारण ही स्वयं रात्रि आदि में सशंक होकर डरना, (५) आजीवभय—दुष्काल आदि में जीवननिर्वाह के लिए भोजनादि की अप्राप्ति के या पीड़ा के दुर्विकल्पवश डरना, (६) मरणभय-मृत्यु से डरना और (७) अपयशभय-अपयश (बदनामी) की आशंका से डरना। भयमोहनीय-कर्मोदयवश आत्मा का उद्वेग रूप परिणामविशेष भय कहलाता है। भय से चारित्र दूषित १. देखिये-उत्तरा. मूलपाठ अ. २६, गा. ३३, ३४, ३५ २. देखिये-उत्तरा. अ. ३०, गा. २५ ३. स्थानांग. स्थान ७/५४५ वृत्ति, पत्र ३८६-३८७