SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 623
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२४ उत्तराध्ययनसूत्र क्रिया : स्वरूप और प्रकार-कर्मबन्ध करने वाली चेष्टा क्रिया है। आगमों में यों तो विस्तृत रूप से क्रिया के २५ भेद कहे हैं, किन्तु उन सबका सूत्रोक्त पांच क्रियाओं में अन्तर्भाव हो जाता है। वे इस प्रकार हैं—कायिकी—शरीर द्वारा होने वाली, आधिकरणिकी—जिसके द्वारा आत्मा नरकादि दुर्गति का अधिकारी होता है (घातक शस्त्रादि अधिकरण कहलाते हैं), प्राद्वेषिकी—जीव या अजीव किसी पदार्थ के प्रति द्वेषभाव (ईर्ष्या, मत्सर, घृणा आदि) से होने वाली, पारितापनिकी—किसी प्राणी को परितापन (ताडन आदि) से होने वाली क्रिया और प्राणातिपातिकी-स्व और पर के प्राणातिपात से होने वाली क्रिया। पंचेन्द्रिय-विषय-शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श, ये पांच इन्द्रियविषय हैं, इन पांचों में मनोज्ञ पर राग और अमनोज्ञ पर द्वेष न करना, अर्थात्-पांचों विषयों के प्रति राग-द्वेष से निवृत्ति और तटस्थतासमभाव में प्रवृत्ति ही साधक के लिए आवश्यक है। छह बोल ८. लेसासु छसु काएसु छक्के आहारकारणे। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले॥ [८] जो भिक्षु (कृष्णादि) छह लेश्याओं, पृथ्वीकाय आदि छह कायों, तथा आहार के छह कारणों में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता। विवेचन-लेश्याएँ : स्वरूप और प्रकार—लेश्या का संक्षेप में अर्थ होता है—विचारों की तरंग या मनोवृत्ति । आत्मा में जिन शुभाशुभ परिणामों द्वारा शुभाशुभ कर्म का संश्लेष होता है, वे परिणाम लेश्या कहलाते हैं । ये लेश्याएँ निकृष्टतम से लेकर प्रशस्ततम तक ६ हैं, अर्थात्-ऐसे परिणामों की धाराएँ छह हैं, जो उत्तरोत्तर प्रशस्त होती जाती हैं। वे इस प्रकार हैं—कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। इनमें से साधक को प्रारंभ की तीन अधर्मलेश्याओं से निवृत्ति और तीन धर्मलेश्याओं में प्रवृत्ति करना है। षट्काय : स्वरूप और कर्त्तव्य-जीवनिकाय (ससारी जीवों के समूह) छह हैं। इन्हें षट्काय भी कहते हैं। वे हैं—पृथ्वीकाय, (पृथ्वीरूप शरीर वाले जीव), अप्काय—(जलरूप शरीर वाले), तेजस्काय (अग्निरूप शरीर वाले), वायुकाय—(वायुरूप शरीर वाले जीव) और वनस्पतिकाय (वनस्पतिरूप शरीर वाले)। ये पांच स्थावर भी कहलाते हैं। इनके सिर्फ एक ही इन्द्रिय (स्पर्शेन्द्रिय) होती है। छठा त्रसकाय है, त्रसनामकर्म के उदय से गतिशीलशरीरधारी त्रसकायिक जीव कहलाते हैं । ये चार प्रकार के हैं—द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चातुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय (नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव) । इन षट्कायिक जीवों को हिंसा से निवृत्ति और इनकी दया या रक्षा में प्रवृत्ति करना-कराना साधुधर्म का अंग है। आहार के विधान-निषेध के छह कारण- इसी शास्त्र में पहले सामाचारी अध्ययन (अ. २६) में मूलपाठ में आहार करने के ६ और आहार न करने—आहारत्याग करने के ६ कारण बता चुके हैं। अतः १. स्थानांग., स्थान ५ वृत्ति २. आवश्यक. वृत्ति, आचार्य हरिभद्र ३. (क) संश्लिष्यते आत्मा तैस्तैः परिणामान्तरैः। ....लेश्याभिरांत्मनि कर्माणि संश्लिष्यन्ते । आवश्यक चूर्णि (ख) देखिये-उत्तराध्यायनसूत्र, लेश्या-अध्ययन ४. स्थानांग, स्थान ६ वृत्ति, आवश्यकसूत्रवृत्ति
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy