SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 622
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इकतीसवाँ अध्ययन : चरणविधि ५२३ और लोभमोहनीय के उदय से जागृत होती हैं। साधु को इन चारों संज्ञाओं से निवृत्त और निराहारसंकल्प, निर्भयता, ब्रह्मचर्य एवं निष्परिग्रहता में प्रवृत्त होना चाहिए। दो ध्यान—यहाँ जिन दो ध्यानों से निवृत्त होने का संकेत है, वे हैं—आर्तध्यान और रौद्रध्यान। निश्चल होकर एक ही विषय का चिन्तन करना ध्यान है। ध्यान चार प्रकार के हैं—आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान। इनका विवेचन तीसवें अध्ययन में किया जा चुका है। पांच बोल ७. वएसु इन्दियत्थेसु समिईसु किरियासु य। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छई मण्डले॥ [७] जो भिक्षु व्रतों (पांच महाव्रतों) और समितियों के पालन में तथा इन्द्रियविषयों और (पांच) क्रियाओं के परिहार में यदा यत्नशील रहता है; वह संसार में नहीं रहता। विवेचन-पंचमहाव्रत-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ये जब मर्यादित रूप में ग्रहण किये जाते हैं, तब अणुव्रत कहलाते हैं। अणुव्रत का अधिकारी गृहस्थ होता है। वह हिंसा आदि का सर्वथा परित्याग नहीं कर सकता। जबकि साधु-साध्वी वर्ग का जीवन गहस्थी के उत्तरदायित्व से मुक्त होता है, वह पूर्ण आत्मबल के साथ पूर्ण चारित्र के पथ पर अग्रसर होता है और अहिंसा आदि महाव्रतों का तीन करण और तीन योग से (यानी नव कोटि से) सदा सर्वथा पूर्ण साधना में प्रवृत्त होता है। ये पंचमहाव्रत साधु के पांच मूलगुण कहलाते हैं। समिति : स्वरूप और प्रकार—विवेकयुक्त यतना के साथ प्रवृत्ति करना—समिति है। समितियाँ पांच हैं—ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपसमिति और परिष्ठापनासमिति। ईर्यासमिति-युगपरिमाण भूमि को एकाग्रचित्त से देखते हुए, जीवों को बचाते हुए यतनापूर्वक गमनागमन करना। भाषासमिति-आवश्यकतावश भाषा के दोषों का परिहार करते हुए यतनापूर्वक हित, मित एवं स्पष्ट वचन बोलना। एषणासमिति—गोचरी संबंधी ४२ दोषों से रहित शुद्ध आहार-पानी तथा वस्त्र-पात्र आदि उपधि का ग्रहण एवं परिभोग करना। आदानभाण्डमात्र निक्षेपणासमिति-वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों को उपयोगपूर्वक ग्रहण करना एवं जीवरहित प्रमार्जित भूमि पर रखना। परिष्ठापनिकासमितिमलमूत्रादि तथा भुक्तशेष अन्नपान तथा भग्न पात्रादि परठने योग्य वस्तु को जीवरहित एकान्त स्थण्डिलभूमि में परठना-विसर्जन करना । प्रस्तुत पांच समितियाँ सत्प्रवृत्तिरूप होते हुए भी असावधानी से, अयतना से जीवविराधना हो, ऐसी प्रवृत्ति करने से निवृत्त होना भी है। यह तथ्य साधु को ध्यान में रखना है। १. स्थानांगसूत्र स्थान ४, वृत्ति २. आवश्यकसूत्र हरिभद्रीय टीका "आचरितानि महद्भिर्यच्च महान्तं प्रसाधयन्यर्थम्। __ स्वयमपि महान्ति यस्मान् महाव्रतानीत्यतस्तानि ॥" -ज्ञानावर्ण, आचार्य शुभचन्द्र ३. (क) सम्-एकीभावेन, इतिः-प्रवृत्तिः समितिः, शोभनैकाग्रपरिणामचेष्टेत्यर्थः। -आचार्य नमि (ख) ईर्याविषये एकीभावेन चेष्टनमीर्यासमितिः। -आचार्य हरिभद्र (ग) भाषासमिति म हितमितासंदिग्धार्थभाषणम्।-आचार्य हरिभद्र (घ) भाण्डमात्रे आदान-निक्षेपणया समितिः सुन्दरचेष्टेत्यर्थः। -आ. हरिभद्र (ङ) परित: सर्वप्रकारैः स्थापनपुनर्ग्रहणतया न्यासः, तेन निर्वृत्ता पारिष्ठापनिकी।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy