________________
५३०
उत्तराध्ययनसूत्र
(आक्रोशादि रूप कलह करना), (१९) सूर्यप्रमाणभोजित्व (सूर्यास्त होने तक दिनभर कुछ न कुछ खाते पीते रहना), और (२०) एषणा-असमितत्व (एषणासमिति का उचित ध्यान न रखना)।
जिस कार्य के करने से चित्त में अशान्ति एवं अप्रशस्त भावना उत्पन्न हो, ज्ञानादि रत्नत्रय से आत्मा भ्रष्ट हो, उसे असमाधि कहते हैं, और जिस सुकार्य के करने से चित्त में शान्ति, स्वस्थता और मोक्षमार्ग में अवस्थिति रहे, उसे समाधि कहते हैं। प्रस्तुत में असमाधि से निवृत्त होना और समाधि में प्रवृत्त होना साधु के लिए आवश्यक है। इक्कीसवां और बाईसवां बोल
१५. एगवीसाए सबलेसु बावीसाए परीसहे।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले॥ [१५] इक्कीस शबल दोषों में और बाईस परीषहों में जो भिक्षु सदैव उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता।
विवेचन-इक्कीस शबल दोष-(१) हस्तकर्म, (२) मैथुन, (३) रात्रिभोजन, (४) आधाकर्म, (५) सागारिक पिण्ड (शय्यातर का आहार लेना), (६) औद्देशिक (साधु के निमित्त बनाया, खरीदा या लाया हुआ आहार ग्रहण करना), (७) प्रत्याख्यानभंग, (८) गणपरिवर्तन (छह मास में गण से गणान्तर में जाना), (९) उदकलेप (महीने में तीन बार जंघा प्रमाण जल में प्रवेश करके नदी आदि पार करना), (१०) मायास्थान (एक मास में ३ बार मायास्थानों का सेवन करना), (११) राजपिण्ड, (१२) जानबूझ कर हिंसा करना, (१३) इरादा पूर्वक मृषावाद करना, (१४) इरादा पूर्वक अदत्तादान करना, (१५) सचित्त पृथ्वीस्पर्श, (१६) सस्निग्ध तथा सचित्त रज वाली पृथ्वी, शिला, तथा सजीव लकड़ी आदि पर शयनासनादि, (१७) सजीव स्थानों पर शयनासनादि, (१८) जानबूझ कर कन्द मूलादि का सेवन करना, (१९) वर्ष में दस बार उदक लेप, (२०) वर्ष में दस बार माया स्थानसेवन, और (२१) बार-बार सचित्त जल वाले हाथ, कुड़छी आदि से दिया जाने वाला आहार ग्रहण करना।
उपर्युक्त शबलदोषों का सर्वथा त्याग साधु के लिए अनिवार्य है। जिन कार्यों के करने से चारित्र मलिन हो जाता है, उन्हें शबलदोष कहते हैं।
बाईस परीषह-दूसरे अध्ययन में इनके नाम तथा स्वरूप का उल्लेख किया जा चुका है। साधु को इन परीषहों को समभाव से सहन करना चाहिए। तेईसवां और चौवीसवां बोल
१६. तेवीइस सूयगडे रूवाहिएसु सुरेसु ।
जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले॥ १. (क) समवायांग, समवाय २०, (ख) दशाश्रतस्कन्ध, दशा १
(ग) समाधानं समाधिः-चेतसःस्वास्थ्य, मोक्षमार्गेऽवस्थितिरित्यर्थः। -आचार्य हरिभद्र २. (क) समवायांग. समवाय २१ (ख) दशाश्रुतस्कन्ध दशा २
(ग) “शबलं कर्बुर चारित्रं यैः क्रियाविशेषैर्भवति ते शबलास्तद्योगात् साधवोऽपि।"-समवायांग, समवाय २१ टीका। ३. (क) उत्तराध्ययन अ. २. मूलपाठ, (ख) परीसहिज्जते इति परीसहा अहियासितित्ति वत्तं भवति।—जिनदास महत्तर