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________________ ५१७ भेदविज्ञान प्राप्त होते ही शरीर रहते हुए भी शरीर के प्रति आदर घट जाने की तथा ममत्व हट जाने की स्थिति का नाम कायोत्सर्ग है । कायोत्सर्ग की विधि— कायोत्सर्गकर्ता काय के प्रति निःस्पृह हो कर जीव-जन्तुरहित स्थान में खंभे की तरह निश्चल एवं सीधा खड़ा हो। दोनों बाहु घुटनों की ओर लम्बी करे। चार अंगुल के अन्तर सहित समपाद होकर प्रशस्त ध्यान में निमग्न हो । हाथ आदि अंगों का संचालन न करे। काय को न तो अकड़ कर खड़ा हो ओर नहीं झुका कर । देव-मनुष्य तिर्यंचकृत तथा अचेतनकृत सभी उपसर्गों को कायोत्सर्ग-स्थित मुनि सहन करे । कायोत्सर्ग में मुनि ईर्यापथ के अतिचारों का शोधन करे तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान का चिन्तन करे । प्रायः वह एकान्त, शान्त, कोलाहल एवं आवागमन से रहित अबाधित स्थान में कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग का प्रयोजन—मुनि अपने शरीर के प्रति ममत्वत्याग के अभ्यास के लिए, ईर्यापथ के तथा अन्य अवसरों पर हुए दोषों के शोधन के लिए, दोषों के आलोचन के लिए, कर्मनाश एवं दुःखक्षय के लिए या मुक्ति के लिए कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग का मुख्य प्रयोजन तो काय से आत्मा को पृथक् (वियुक्त) करना है । आत्मा के सान्निध्य में रहना है तथा स्थान, मौन और ध्यान के द्वारा परद्रव्यों में 'स्व' का व्युत्सर्ग करना है । निःसंगत्व, निर्भयत्व, जीविताशात्याग, दोषोच्छेद, मोक्षमार्गप्रभावना और तत्परत्व आदि के लिए दोनों प्रकार का व्युत्सर्ग तप आवश्यक है। प्रयोजन की दृष्टि से कायोत्सर्ग के दो रूप होते हैं---- चेष्टाकायोत्सर्ग—अतिचारशुद्धि के लिए और अभिनवकायोत्सर्ग — विशेष विशुद्धि या प्राप्त कष्ट को सहन करने के लिए । अतिचारशुद्धि के लिए किये जाने वाले कायोत्सर्ग के दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक आदि अनेक विकल्प होते हैं। ये कायोत्सर्ग प्रतिक्रमण के समय किये जाते हैं । ३ मानसिक वाचिक कायिक कायोत्सर्ग—मन शरीर के प्रति ममत्वबुद्धि की निवृत्ति मानसकायोत्सर्ग है, 'मैं शरीर का त्याग करता हूँ', ऐसा वचनोच्चारण करना वचनकृत, कायोत्सर्ग है और बांहे नीचे फैला कर तथा दोनों पैरों में सिर्फ चार अंगुल का अन्तर रखकर निश्चल खड़े रहना शारीरिक कायोत्सर्ग है। इस त्रिविध कायोत्सर्ग में मन, वचन, काय की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण करना आवश्यक है। कायोत्सर्ग के प्रकार - हेमचन्द्राचार्य के मतानुसार कायोत्सर्ग खड़े-खड़े, बैठे-बैठे और सोते-सोते तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में कायोत्सर्ग और स्थान दोनों एक हो जाते हैं । १. (क) कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरित् अप्पाणं । तस्स हवे तणुसग्गं जो झायइ निव्विअप्पेण ॥ - नियमसार १२१ (ख) देवस्सियणियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि । जिण गुणचितणजुत्तो काओसग्गो तणुविसग्गो ॥ मूला० २८ (ग) परिमितकालविषया शरीरे ममत्व निवृत्ति: कायोत्सर्गः । - चारित्रसार ५६ / ३ (घ) योगसार अ. ५/५२ (ङ) कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा ४६७-४६८ (च) भगवती आराधना वि. २. (क) मूलाराधना वि. २/११६, पृ. २८ (ग) वही, (मूल) ५५०/७६३ ११६ / २७८ / १३ (सारांश) (ख) भगवती आराधना वि. ११६/२७८/२० ४. ३. (क) मूलाराधना ६६२-६६६, ६६३-६६५, (ग) योगशास्त्र (हेमचन्द्राचार्य) प्रकाश ३, पत्र २५० (ङ) बृहत्कल्पभाष्य : इह द्विधा कायोत्सर्ग : - चेष्टायामभिभवे च । गा. ५९५८ (च) योगशास्त्र प्रकाश ३, पत्र २५० (क) भगवती आराधना विजयोदया ५०९/७२९/१६ (ख) वही, २ / ११६ पृ. २७८ (घ) राजवार्तिक ९ / २६/१०/६२५ (ख) योगशास्त्र प्रकाश ३, पत्र २५०
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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