________________
५१६
६. व्युत्सर्ग : स्वरूप और विश्लेषण
३६. सयणासण-ठाणे वा जे उ भिक्खू न वावरे । कायस्स विउस्सग्गो छट्टो सो परिकित्तिओ ॥
उत्तराध्ययन सूत्र
[३६] शयन में, आसन में और खड़े होने में जो भिक्षु शरीर से हिलने-डुलने की चेष्टा नहीं करता, यह शरीर का व्युत्सर्ग, व्युत्सर्ग नामक छठा (आभ्यन्तर) तप कहा गया है।
विवेचन - व्युत्सर्ग- तप: लक्षण, प्रकार और विधि—बाहर में क्षेत्र, वास्तु, शरीर, उपधि, गण, भक्त - पान आदि का और अन्तरंग में कषाय, संसार और कर्म आदि का नित्य अथवा अनियत काल के लिए त्याग करना व्युत्सर्गतप है। इसी कारण द्रव्य और भावरूप से व्युत्सर्गतप मुख्यतया दो प्रकार का आगमों में वर्णित है । द्रव्यत्सर्ग के चार प्रकार - (१) शरीरव्युत्सर्ग (शारीरिक क्रियाओं में चपलता का त्याग ), (२) गणव्युत्सर्ग— (विशिष्ट साधना के लिए गण का त्याग), (३) उपधिव्युत्सर्ग (वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों का त्याग) और (४) भक्त - पानव्युत्सर्ग ( आहार- पानी का त्याग ) । भावव्युत्सर्ग के तीन प्रकार हैं- (१) कषायव्युत्सर्ग, (२) संसारव्युत्सर्ग (संसारपरिभ्रमण का त्याग) और (३) कर्मव्युत्सर्ग— (कर्मपुद्गलों का विर्सजन) ।
धवला के अनुसार — शरीर एवं आहार में मन, वचन की प्रवृत्तियों को हटा कर ध्येय वस्तु के प्रति एकाग्रतापूर्वक चित्तनिरोध करना व्युत्सर्ग है। अनगारधर्मामृत में व्युत्सर्ग की निरुक्ति की है—बन्ध के हेतुभूत विविध प्रकार के बाह्य एवं आभ्यन्तर दोषों का विशेष प्रकार से विसर्जन (त्याग) करना । १
कायोत्सर्ग के लक्षण - व्युत्सर्ग का ही एक प्रकार कायोत्सर्ग है । (१) नियमसार में कायोत्सर्ग का लक्षण कहा गया है-'काय आदि पर द्रव्यों में स्थिर भाव छोड़कर आत्मा का निर्विकल्परूप से ध्यान करना कायोत्सर्ग है।' (२) दैवसिक निश्चित क्रियाओं में यथोक्त कालप्रमाण- पर्यन्त उत्तम क्षमा आदि जिनेन्द्र गुणों
चिन्तन सहित देह के प्रति ममत्व छोड़ना कायोत्सर्ग है । (३) देह को अचेतन, नश्वर एवं कर्मनिर्मित समझ कर केवल उसके पोषण आदि के लिए जो कोई कार्य नहीं करता, वह, कार्योत्सर्ग-धारक है। जो मुनि शरीर-संस्कार के प्रति उदासीन हो, भोजन, शय्या आदि की अपेक्षा न करता हो, दुःसह रोग के हो जाने पर भी चिकित्सा नहीं करता हो, शरीर पसीने और मैल से लिप्त हो कर भी जो अपने स्वरूप के चिन्तन में ही लीन रहता हो, दुर्जन और सज्जन के प्रति मध्यस्थ और शरीर के प्रति ममत्व न करता हो, उस मुनि के कायोत्सर्ग नामक तप होता है। (४) खड़े-खड़े या बैठे-बैठे शरीर तथा कषायों का त्याग करना कायोत्सर्ग है । (५) यह अशुचि अनित्य, विनाशशील, दोषपूर्ण असार एवं दुःखहेतु एवं अनन्तसंसार परिभ्रमण का कारण, यह शरीर मेरा नहीं है और न मैं इसका स्वामी हूँ। मैं भिन्न हूँ, शरीर भिन्न है, इस प्रकार का
१. (क) जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष भा. ३, पृ. ६२७ (ख) भगवती. २५/७/८०२ (ग) औपपातिक सू. २६ (घ) 'सरीराहारेसु हु मणवयणपवृत्तीओ ओसारियज्झेयम्मि एअग्गेण चित्तणिरोहो वि ओसग्गो णाम ।'
- धवला ८/३, ४१/८५
(ङ) बाह्याभ्यन्तरदोषा ये विविधा बन्धहेतवः । यस्तेषामुत्तमः सर्गः स व्युत्सर्गो विरुच्यते ॥
- अनगारधर्मामृत ७/९४/७२१