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५१५ प्रवृत्तियों में जुटे रहना, (३) अज्ञानवश हिंसा में प्रवृत्त होना और (४) प्राणांतकारी हिंसा आदि करने पर भी पश्चात्ताप न होना।
प्रकार-हिंसा करने, झूठ बोलने, चोरी करने और प्राप्त विषयों के संरक्षण की वृत्ति से क्रूरता व कठोरता उत्पन्न होती है। इन्हीं को लेकर जो सतत धाराप्रवाह चिंतन होता है, वह क्रमशः चार प्रकार का होता है-हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी और विषयसंरक्षणानुबन्धी।
ये दोनों ध्यान पापाश्रव के हेतु होने से अप्रशस्त हैं। साधना की दृष्टि से आर्त्त-रौद्रपरिणतिमयी एकाग्रता विघ्नकारक ही है।
मोक्ष हेतुभूत ध्यान दो हैं-धर्मध्यान और शुक्लध्यान। ये दोनों प्रशस्त हैं और आश्रवनिरोधक हैं।
धर्मध्यान : लक्षण, प्रकार, आलम्बन और अनप्रेक्षाएँ-वस्तु के धर्म या सत्य अथवा आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान के चिन्तन-अन्वेषण में परिणत चेतना की एकाग्रता को 'धर्मध्यान' कहते हैं। इसके ४ लक्षण हैं—आज्ञारुचि-(प्रवचन के प्रति श्रद्धा), (२) निसर्गरुचि-(स्वभावतः सत्य में श्रद्धा), (३) सूत्ररुचि-(शास्त्राध्ययन से उत्पन्न श्रद्धा) और (३) अवगाढरुचि-(विस्तृतरूप से सत्य में अवगाहन करने की श्रद्धा)।
चार आलम्बन-वाचना, प्रतिपृच्छना, पुनरावृत्ति करना और अर्थ के सम्बन्ध में चिन्तन–अनुप्रेक्षण।
चार अनुप्रेक्षाएँ–(१) एकत्व-अनुप्रेक्षा, (२) अनित्यत्वानुप्रेक्षा, (३) अशरणानुप्रेक्षा (अशरणदशा का चिन्तन) और (४) संसारानुप्रेक्षा (संसार संबंधी चिन्तन)२
शुक्लध्यान : आत्मा के शुद्ध रूप की सहज परिणति को शुक्लध्यान कहते हैं। इसके भी चार प्रकार हैं—(१) पृथक्त्ववितर्कसविचार-श्रुत के आधार पर किसी एक द्रव्य में (परमाणु आदि जड़ में या आत्मरूप चेतन में) उत्पत्ति, स्थिति, नाश, मूर्त्तत्व, अमूर्त्तत्त्व आदि अनेक पर्यायों का द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिक आदि विविध नयों द्वारा भेदप्रधान चिन्तन करना। (२) एकत्ववितर्क-अविचार-ध्याता द्वारा अपने में सम्भाव्य श्रुत के आधार पर एक ही पर्यायरूप अर्थ को लेकर उस पर एकत्व-(अभेद) प्रधान चिन्तन करना, एक ही योग पर अटल रहना। (३) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति—सर्वज्ञ भगवान् जब योगनिरोध के क्रम में सूक्ष्म काययोग का आश्रय लेकर शेष योगों को रोक लेते हैं, उस समय का ध्यान सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति कहलाता है। (४) समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति-जब शरीर की श्वासोच्छ्वास आदि सूक्ष्मक्रियाएँ भी बंद हो जाती हैं और आत्मप्रदेश सर्वथा निष्प्रकम्प हो जाते हैं, तब वह ध्यान समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति कहलाता है। . चार लक्षण-अव्यथ (व्यथा का अभाव), असम्मोह (सूक्ष्म पदार्थविषयक मूढता का अभाव), विवेक (शरीर और आत्मा के भेद का ज्ञान) और व्युत्सर्ग (शरीर और उपधि पर अनासक्ति भाव)।
चार आलम्बन-क्षमा, मुक्ति (निर्लोभता), मृदुता और ऋजुता।
चार अनुप्रेक्षााएँ-(१) अनन्तवृत्तिता (संसारपरम्परा का चिन्तन), (२) विपरिणाम-अनुप्रेक्षा (वस्तुओं के विविध परिणामों पर चिन्तन), (३) अशुभ-अनुप्रेक्षा (पदार्थों की अशुभता का चिन्तन) और (४) अपाय-अनुप्रेक्षा (अपायों-दोषों का चिन्तन)। १. तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलालजी) ९/३६ २. तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलालजी) ९/३७ ३. तत्त्वार्थसूत्र (पं.सुखलालजी) ९/३९-४६, पृ. २२९-२३०