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उत्तराध्ययनसूत्र [३५] आर्त और रौद्र ध्यान को त्याग कर जो सुसमाहित मुनि धर्म और शुक्लध्यान ध्याता है, ज्ञानी जन उसे ही 'ध्यानतप' कहते हैं।
विवेचन-ध्यान के लक्षण—(१) एकाग्रचिन्तन ध्यान है, (२) जो स्थिर अध्यवसान (चेतन) है, वही ध्यान है। (३) चित्तविक्षेप का त्याग करना ध्यान है। अथवा (४) अपरिस्पन्दमान अग्निज्वाला (शिखा) की तरह अपरिस्पन्दमान ज्ञान ही ध्यान है। अथवा (५) अन्तर्मुहूर्त तक चित्त का एक वस्तु में स्थित रहना छद्मस्थों का ध्यान है और वीतराग पुरुष का ध्यान योगनिरोध रूप है। अथवा (६) मन-वचन-काया की स्थिरता को भी ध्यान कहते हैं।
ध्यान के प्रकार और हेयोपादेय ध्यान—एकाग्रचिन्तनात्मक ध्यान की दृष्टि से उसके चार प्रकार होते हैं- (१) आर्त्त, (२) रौद्र, (३) धर्म और (४) शुक्ल। आर्त और रौद्र, ये दोनों ध्यान अप्रशस्त हैं।
पुत्र-शिष्यादि के लिए, हाथी-घोड़े आदि के लिए, आदर-पूजन के लिए, भोजन-पान के लिए, मकान या स्थान के लिए, शयन, आसन, अपनी भक्ति एवं प्राणरक्षा के लिए, मैथुन की इच्छा या कामभोगों के लिए, आज्ञानिर्देश, कीर्ति, सम्मान, वर्ण (प्रशंसा) या प्रभाव या प्रसिद्धि के लिए मन का संकल्प (चिन्तन) अप्रशस्त ध्यान है। जीवों के पापरूप आशय के वश से तथा मोह, मिथ्यात्व, कषाय तथा तत्त्वों के अयथार्थरूप विभ्रम से उत्पन्न हुआ ध्यान अप्रशस्त एवं असमीचीन है। पुण्यरूप आशय से तथा शुद्ध लेश्या के आलम्बन से और वस्तु के यथार्थस्वरूप के चिन्तन से उत्पन्न हुआ ध्यान प्रशस्त है। प्रस्तुत गाथा में दो प्रशस्त ध्यान ही उपादेय तथा दो अप्रशस्त ध्यान त्याज्य बताए हैं।
जीव का आशय तीन प्रकार का होने से कई संक्षेपरुचि साधकों ने तीन प्रकार का ध्यान माना है(१) पुण्यरूप शुभाशय, (२) पापरूप अशुभाशय और (३) शुद्धोपयोग रूप आशयवाला।
आर्तध्यान : लक्षण एवं प्रकार—आर्तध्यान के ४ लक्षण हैं-आक्रन्द, शोक, अश्रुपात और विलाप। इसके चार प्रकार हैं-(१) अप्रिय वस्तु के प्राप्त होने पर उसके वियोग के लिए सतत चिन्ता करना, (२) आतंकादि दुःख आ पड़ने पर उसके निवारण की सतत चिन्ता करना, (३) प्रिय वस्तु का वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिए सतत चिन्ता करना अथवा मनोज्ञ वस्तु या विषय का संयोग होने पर उसका वियोग न होने की चिन्ता करना। (४) अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए सतत चिन्ता या संकल्प करना अथवा प्रीतिकर कामभोग का संयोग होने पर उसका वियोग न होने की चिन्ता करना। इसलिए चेतना की आर्त या वेदनामयी एकाग्र परिणति को आर्त्तध्यान कहा गया है।
रौद्रध्यान : लक्षण एवं प्रकार-रुद्र अर्थात् क्रूर-कठोर चित्त के द्वारा किया जाने वाला ध्यान रौद्रध्यान है। इसके चार लक्षण हैं-(१) हिंसा आदि से प्रायः विरत न होना, (२) हिंसा आदि की १. (क) तत्त्वार्थ. ९/२०
(ख) 'जं थिरमझवसाणं तं झाणं।' –ध्यानशतक गा. २ (ग) चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम्'–सर्वार्थसिद्धि ९/२०/४३९ (घ) अपरिस्पन्दमानं ज्ञानमेव ध्यानमुच्यते। -तत्त्वार्थ श्रुतसागरीय वृत्ति, ९/२७ (ङ) ध्यानशतक, गाथा ३
(च) लोकप्रकाश ३०/४२१-४२२ २. (क) मूलाराधना ६८१-६८२
(ख) ज्ञानार्णव ३/२९-३१ (ग) चारित्रसार १६७/२ ३. ज्ञानार्णव ३/२७-२८
४. तत्त्वार्थसूत्र (पं.सुखलालजी) ९/२९, ९/३०, ९/३१-३४