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________________ तीसवाँ अध्ययन : तपोमार्गगति ५१३ ४. स्वाध्याय : स्वरूप एवं प्रकार ३४. वायणा पुच्छणा चेव वहेव परियट्टणा। अणुप्पेहा धम्मकहा सज्झाओ पंचहा भवे॥ [३४] वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा, यह पांच प्रकार का स्वाध्याय-तप है। विवेचन–स्वाध्याय के लक्षण-(१) स्व–अपनी आत्मा का हित करने वाला, अध्याय-अध्ययन करना स्वाध्याय है, अथवा (२) आलस्य त्याग कर ज्ञानाराधना करना स्वाध्याय-तप है। (३) तत्त्वज्ञान का पठन, पाठन और स्मरण करना आदि स्वाध्याय है। (४) पूजा-प्रतिष्ठादि से निरपेक्ष होकर केवल कर्ममल-शुद्धि के लिए जो मुनि जिनप्रणीत शास्त्रों को भक्तिपूर्वक पढ़ता है, उसका श्रुतलाभ सुखकारी है। स्वाध्याय के प्रकार-पांच हैं—(१) वाचना (स्वयं पढ़ना या योग्य व्यक्ति को वाचना देना या व्याख्यान करना), (२) पृच्छना—(शास्त्रों के अर्थ को बार-बार पूछना), (३) परिवर्तना-(पढ़े हुए ग्रन्थ का बार-बार पाठ करना), (४) अनुप्रेक्षा-(परिचित या पठित शास्त्रपाठ का मर्म समझने के लिए मननचिन्तन-पर्यालोचन करना) और (५) धर्मकथा-(पठित या पर्यालोचित शास्त्र का धर्मोपदेश करना अथवा त्रिषष्टिशलाका पुरुषों का चरित्र पढ़ना)। तत्त्वार्थसूत्र में परिवर्तना के बदले उसी अर्थ का द्योतक 'आम्नाय' शब्द है। स्वाध्याय : सर्वोत्तम तप-सर्वज्ञोपदिष्ट बारह प्रकार के तप में स्वाध्यायतप के समान न तो अन्य कोई तप है और न ही होगा। सम्यग्ज्ञान से रहित जीव करोड़ों भवों में जितने कर्मों का क्षय कर पाता है, ज्ञानी साधक तीन गुप्तियों से गुप्त होकर उतने कर्मों को अन्तर्मुहूर्त में क्षय कर देता है। एक उपवास से लेकर पक्षोपवास या मासोपवास करने वाले सम्यग्ज्ञानरहित जीव से भोजन करने वाला स्वाध्याय-तत्पर सम्यग्दृष्टि साधक परिणामों की अधिक विशुद्धि कर लेता है। ५. ध्यान : लक्षण और प्रकार ३५. अट्टरुद्दाणि वजित्ता झाएजा सुसमाहिए। धम्मसुक्काइं झाणाई झाणं तं तु बुहा वए॥ १. (क) 'स्वस्मै हितोऽध्यायः स्वाध्यायः।' -चारित्रसार १५२/५ (ख) 'ज्ञानभावनाऽलस्यत्यागः स्वाध्यायः' -सर्वार्थसिद्धि ९/२० (ग) 'स्वाध्यायस्तत्त्वज्ञानस्याध्ययनमध्यापनं स्मरणं च।' -चारित्रसार ४४/३ (घ) 'पूयादिसु णिरवेक्खो जिणसत्थं जो पढेइ भत्तिजुओ। कम्ममलसोहणटुं सुयलाहो सुहयरो तस्स।' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४६२ (ख) वाचना-पच्छानाऽनप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः। -तत्त्वार्थ. ९/२५ ३. बारसविहम्मि य तवे सब्भंतरबाहिरे कुसलदिव। ण वि अत्थि, ण वि य होहिदि सज्झायसमं तवोकम्मं॥ जं अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेदि अंतोमुहूत्तेण॥ छट्ठमट्ठमदसमदुवालसेहिं अण्णाणियस्स जा सोही। तत्तो बहुगुणदरिया होज्ज हु जिमिदस्स णाणिस्स॥ -भगवती आराधना १०७-१०८-१०९
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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