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उत्तराध्ययनसूत्र ३. वैयावृत्य का स्वरूप
___३३. आयरियमाइयम्मि य वेयावच्चम्मि दसविहे।
___ आसेवणं जहाथामं वेयावच्चं तमाहियं॥ [३३] आचार्य आदि से सम्बन्धित दस प्रकार के वैयावृत्त्य का यथाशक्ति आसेवन करने को वैयावृत्त्य कहा है।
विवेचन—वैयावृत्त्य के लक्षण-संयमी या गुणी पुरुषों के दुःख में आ पड़ने पर गुणानुरागपूर्वक निर्दोष (कल्पनीय) विधि से उनका दुःख दूर करना, अथवा शरीरचेष्टा या दूसरे द्रव्य द्वारा उनकी उपासना करना, व्याधि, परीषह आदि का उपद्रव होने पर औषध. आहारपान. उपाश्रय आदि देकर उपकार करना. जो मुनि उपसर्ग-पीड़ित हो तथा वृद्धावस्था के कारण जिसकी काया क्षीण हो गई हो, उसका निरपेक्ष होकर उपकार करना वैयावृत्त्यतप है। रोगादि से व्यापृत (व्याकुल) होने पर आपत्ति के समय उसके निवारणार्थ जो किया जाता है, अथवा शरीरपीड़ा अथवा दुष्परिणामों को दूर करने के लिए औषध आदि से या अन्य प्रकार से जो उपकार किया जाता है वह वैयावृत्त्य नामक तप है।
वैयावृत्य का प्रयोजन एवं परिणाम-भगवती आराधना में वैयावृत्य के १८ गुण बताए हैंगुणग्रहण के परिणाम, श्रद्धा, भक्ति, वात्सल्य, पात्रता की प्राप्ति, विच्छिन्न सम्यक्त्व आदि का पुनः सन्धान, तप, पूजा, तीर्थ-अव्युच्छित्ति, समाधि, जिनाज्ञा, संयम, सहाय, दान, निर्विचिकित्सा, प्रवचनप्रभावना । पुण्यसंचय तथा कर्तव्य का निर्वाह।
___ सर्वार्थसिद्धि में बताया गया है कि वैयावृत्त्य का प्रयोजन है—समाधि की प्राप्ति, विचिकित्सा का अभाव तथा प्रवचनवात्सल्य की अभिव्यक्ति। सम्यक्त्वी के लिए वैयावृत्त्य निर्जरा का निमित्त है।
इसी शास्त्र में वैयावृत्त्य से तीर्थंकरत्त्व की प्राप्ति की संभावना बताई गई है।
वैयावृत्त्य के १० प्रकार—वैयावृत्त्य के योग्य पात्रों के आधार पर स्थानांग में इसके १० प्रकार बताए हैं-(१) आचार्य-वैयावृत्त्य, (२) उपाध्याय-वैयावृत्त्य, (३) तपस्वी-वैयावृत्त्य, (४) स्थविर-वैयावृत्त्य, (५) ग्लान-वैयावृत्त्य, (६) शैक्ष (नवदीक्षित)—वैयावृत्त्य, (७) कुल-वैयावृत्त्य, (८) गण-वैयावृत्त्य, (९) संघ-वैयावृत्त्य, और (१०) साधर्मिक-वैयावृत्त्य।
___ मूलाराधना में वैयावृत्त्य के योग्य १० पात्र ये बताए हैं-गुणाधिक, उपाध्याय, तपस्वी, शिष्य, दुर्बल साधु, गण, कुल, चतुर्विध संघ और समनोज्ञ पर आपत्ति आने पर वैयावृत्त्य करना कर्तव्य है। १. (क) रत्नकरण्डश्रावकाचार ११२,
(ख) गुणवददुःखोपनिपाते निरवद्येन विधिना तदपहरणं वैयावृत्त्यम् -सर्वार्थसिद्धि ६/२४, (ग) (रोगादिना) व्यापते, व्यापदि वा यत्क्रियते तद् वैयावृत्त्यम्। -धवला ८/३,४१,१३/५,४ (घ) 'जो उवरदि जदीणं उवसग्गजराइ खीणकायाणं।
पूयादिस णिरवेक्खं वेज्जावच्चं तवो तस्स॥' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४५९ २. (क) भगवती आराधना मूल ३०९-३१० (ख) सर्वार्थसिद्धि ९/२४/४४२ (ग) धर्मपरीक्षा ७/९
(घ) धवला ८८/१० : ताए एवं विहाए एक्काए वेयावच्चजोगजुत्तदाए वि।
(ङ) उत्तरा. अ. २९ सू. ४४ : वेयावच्चेणं तित्थयरनामगोत्तं कम्मं निबंधइ। ३. (क) स्थानांग १०/७३३ (ख) भगवती. २५/७/८१० (ग) औपपातिक. सू. २० (घ) तत्त्वार्थ. ९/२४
(ङ) 'गुणधोए उवण्झाए तवस्सि सिस्से य दुब्बले। साहुगणे कुले संघे समणुण्णे य चापदि॥'—मूलाराधना ३९०