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तीसवाँ अध्ययन : तपोमार्गगति
५११ के लिए 'मिच्छा मि दुक्कडं' (मेरे दुष्कृत—पाप, मिथ्या निष्फल हों) इस प्रकार हृदय से उच्चारण करना। अर्थात्-पश्चातापपूर्वक पापों को अस्वीकृत करना, कायोत्सर्ग आदि करना तथा भविष्य में पापकर्मों से दूर रहने के लिए सावधान रहना। (३) तदुभयारी-पापनिवृत्ति के लिए आलोचना और प्रतिक्रमण, दोनों करना। (४) विवेकाह-परस्पर मिले हुए अशुद्ध अन्न-पान आदि या उपकरणादि को अलग करना, अथवा जिस पदार्थ के अवलम्बन से अशुभ परिणाम होते हों, उसे त्यागना या उससे दूर रहना विवेकार्ह प्रायश्चित्त है। (५) व्युत्सर्गार्ह-चौवीस तीर्थंकरों की स्तुतिपुर्वक कायोत्सर्ग करना। (६) तपोऽर्हउपवास आदि तप (दण्ड–प्रायश्चित्त रूप में) करना (७) छेदाह-अपराधनिवृत्ति के लिए दीक्षापर्याय का छेद करना (काटना) या कम कर देना। (८) मूलाह-फिर से महाव्रतों में आरोपित करना, नई दीक्षा देना। (९) अनवस्थापनार्ह—तपस्यापूर्वक नई दीक्षा देना और (१०) पारांचिकाई-भयंकर दोष लगने पर काफी समय तक भर्त्सना एवं अवहेलना करने के बाद नई दीक्षा देना। ___तत्त्वार्थसूत्र में प्रायश्चित्त के ९ प्रकार ही बतलाए गए हैं । परांचिकार्ह प्रायश्चित्त का विधान नहीं है। २. विनय-तप : स्वरूप और प्रकार
३२. अब्भुट्ठाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं।
गुरुभत्ति-भावसुस्सूसा विणओ एस वियाहिओ॥ [३२] खड़ा होना, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरुजनों की भक्ति करना तथा भावपूर्वक शुश्रूषा करना विनयतप कहा गया है।
विवेचन-विनय के लक्षण—(१) पूज्य पुरुषों के प्रति आदर करना, (२) मोक्ष के साधनभूत सम्यग्दर्शनादि के प्रति तथा उनके साधक गुरु आदि के प्रति योग्य रीति से सत्कार-आदर आदि करना तथा कषाय से निवृत्ति करना, (३) रत्नत्रयधारक पुरुषों के प्रति नम्रवृत्ति धारण करना, (४) गुणों में अधिक (वृद्ध) पुरुषों के प्रति नम्रवृत्ति रखना, (५) अशुभ क्रिया रूप ज्ञानादि के अतिचारों को वि+नयन करनाहटाना (६) कषायों और इन्द्रियों को नमाना. यह सब विनय के अन्तर्गत हैं।२
विनय के प्रकार—यद्यपि प्रस्तुत गाथा में विनय के प्रकारों का उल्लेख नहीं है। तथापि तत्त्वार्थसूत्र में चार (ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार) विनय एवं औपपातिकसूत्र में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, मन, वचन, काय और लोकोपचार, यों ७ विनयों का उल्लेख है। १. (क) स्थानांग १० स्थान ७३३
(ख) भगवती २५/७/८०१ (ग) औपपातिक सूत्र २०
(घ) मूलाराधना ३६२ (ङ) 'आलोचन-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेक-व्युत्सर्ग-तपश्छेद-परिहारोपस्थापनानि।'-तत्त्वार्थ. ९/२२ २. (क) 'पूज्येष्वादरो विनयः।'
–सर्वार्थसिद्धि ९/२० (ख) सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधकेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्त्या सत्कार-आदरः, कषायनिवृत्तिर्वा विनयसम्पन्नता।
-राजवार्तिक ६/२४ (ग) 'रत्नत्रयवत्सु नीचैर्वृत्तिर्विनयः।' -धवला १३/५, ४/२६ (घ) 'गुणाधिकेषु नीचैर्वृत्तिर्विनयः।' -कषायपाहुड १/१-१
(ङ) ज्ञानदर्शनचारित्रतपसामतीचारा अशुभक्रियाः, तासामपोहनं विनयः। -भगवती आराधना वि. ३००/५११ ३. (क) ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपचाराः। -तत्त्वार्थ. ९/२३ (ख) औपपातिक. सू २०