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________________ ५१० उत्तराध्ययनसूत्र चित्तसमाधि, ग्लानि का अभाव, प्रवचन-वात्सल्य आदि। स्वाध्याय के परिणाम-प्रज्ञा का अतिशय, अध्यवसाय की प्रशस्तता, उत्कृष्टसंवेगोत्पत्ति, प्रवचन की अविच्छिन्नता, अतिचारशुद्धि, संदेहनाश, मिथ्यावादियों के भय का अभाव आदि। ध्यान के परिणाम-कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों से पीड़ित न होना, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि शरीर को प्रभावित करने वाले कष्टों से बाधित न होना, ध्यान के सुपरिणाम हैं। व्युत्सर्ग के परिणाम—निर्ममत्व, निरहंकारता, निर्भयता, जीने के प्रति अनासक्ति, दोषों का उच्छेद, मोक्षमार्ग में सदा तत्परता आदि। १. प्रायश्चित्त : स्वरूप और प्रकार ३१. आलोयणारिहाईयं पायच्छित्तं तु दसविहं। जे भिक्खू वहई सम्मं पायच्छित्तं तमाहियं॥ __ [३१] आलोचनार्ह आदि दस प्रकार का प्रायश्चित्त है, जिसका भिक्षु सम्यक् प्रकार से वहन (पालन) करता है, उसे प्रायश्चित्त कहा गया है। विवेचन—प्रायश्चित्त के लक्षण—(१) आत्मसाधना की दुर्गम यात्रा में सावधान रहते हुए भी कुछ दोष लग जाते हैं। उनका परिमार्जन करके आत्मा को पुनः निर्दोष-विशुद्ध बना लेना प्रायश्चित्त है। (२) प्रमादजन्य दोषों का परिहार करना प्रायश्चित तप है। (३) संवेग और निर्वेद से युक्त मुनि अपने अपराध का निराकरण करने के लिए जो अनुष्ठान करता है, वह प्रायश्चित्त तप है । (४) प्रायः के चार अर्थ होते हैं—पाप (अपराध), साधुलोक, अथवा प्रचुररूप से तथा तपस्या। अतः प्रायश्चित्त के अर्थ क्रमशः इस प्रकार होते है—प्रायः पाप अथवा अपराध का चित्त—शोधन प्रायश्चित्त, प्रायः साधलोक का चित्त जिस क्रिया में हो, वह प्रायश्चित्त । प्रायः-लोक अर्थात् जिसके द्वारा साधर्मी और संघ में स्थित लोगों का मन (चित्त) अपने (अपराधी के) प्रति शुद्ध हो जाए, उस क्रिया या अनुष्ठान को प्रायश्चित्त कहते हैं। अथवा प्रायः अर्थात्-प्रचुर रूप से जिस अनुष्ठान से निर्विकार चित्त—बोध हो जाए, वह प्रायश्चित्त है, अथवा प्रायः–तपस्या, चित्त-निश्चय। निश्चययुक्त तपस्या को प्रायश्चित्त कहते हैं ।२ ___ प्रायश्चित्त के दस भेद (१) आलोचनाहअर्ह का अर्थ है योग्य। जो प्राश्चित्त आलोचनारूप (गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करने के रूप) में हो। (२) प्रतिक्रमणार्ह—कृत पापों से निवृत्त होने १. (क) उत्तरा. अ. ३० मूलपाठ गा. २८-२९ (ख) तत्त्वार्थ श्रुतसागरीया वृत्ति, अ. ९/२२,२३,२४,२५,२६ २. (क) उत्तरा. (साध्वी चन्दना) टिप्पण, पृ. ४५४ (ख) 'प्रमाददोषपरिहारः प्रायश्चित्तम्।' –सर्वार्थसिद्धि ९/२०/४३९ (ग) धवला १३/५, ४/२६ कयावराहेण ससंबेय-निव्वेएणा सगावराहणिरायरणळं जमणद्वाणं कीरदि तप्पायच्छित्तं णाम तवोकम। (घ) 'प्रायः पापं विजानीयात् चित्तं तस्य विशोधनम्।' -राजवार्तिक ९/२२/१ (ङ) प्रायस्य-साधुलोकस्य यस्मिन्कर्मणि चित्तं-शुद्धिः तत्प्रायश्चित्तम्। -वही, ९/२२/१ (च) प्राय:-प्राचुर्येण निर्विकारं चित्तं-बोधः प्रायश्चित्तम्। -नियमसार ता. वृ. ११३ (छ) “प्रायो लोकस्तस्य चित्तं, मनस्तच्छुद्धिकृत् क्रिया। प्राये तपसि वा चित्तं-निश्चयस्तनिरुच्यते॥" -अनगारधर्मामृत ७/३७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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