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________________ तीसवाँ अध्ययन : तपोमार्गगति ५०९ विविक्तशय्यासन तप किसके, कैसे और क्यों?—जो मुनि राग-द्वेष को उत्पन्न करने वाले शय्या, आसन आदि का त्याग करता है, अपने आत्मस्वरूप में रमण करता है और इन्द्रय-विषयों से विरक्त रहता है, अथवा जो मुनि अपनी पूजा-प्रतिष्ठा या महिमा को नहीं चाहता, जो संसार, शरीर और भोगों से उदासीन है, जो प्रायश्चित आदि आभ्यन्तर तप में कुशल, शान्तपरिणामी, क्षमाशील व महापराक्रमी है। जो मुनि श्मशानभूमि में, गहन वन में, निर्जन महाभयानक स्थान में अथवा किसी अन्य एकान्त स्थान में निवास करता है उसके विविक्तशय्यासन तप होता है। विविक्त वसति में कलह, व्यग्र करने वाले शब्द (या शब्दबहुलता), संक्लेश, मन की व्यग्रता, असंयतजनों की संगति, व्यामोह (मेरे-तेरे का भाव), ध्यान, अध्ययन का विघात, इन सब बातों से सहज ही बचाव हो जाता है। एकान्तवासी साध सखपूर्वक आत्मस्वरूप में लीन होता है. मन-वचन-काया की अशभ प्रवृत्तियों को रोकता है तथा पांच समिति, तीन गुप्ति आदि का पालन करता हुआ आत्मप्रयोजन में तत्पर रहता है। अतएव असभ्यजनों को देखने तथा उनके सहवास से उत्पन्न हुए त्रिकालविषयक दोषों को दूर करने के लिए विविक्तशय्यासन तप किया जाता है। आभ्यन्तर तप और उसके प्रकार २९. एसो बहिरंगतवो समासेण वियाहिओ। ___ अब्भिन्तरं तवं एत्तो वुच्छामि अणुपुव्वसो॥ ३०. पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं च विउस्सग्गो एसो अब्भिन्तरो तवो॥ [२९-३०] यह बाह्य (बहिरंग) तप का संक्षेप में व्याख्यान किया गया है। अब अनुक्रम से आभ्यन्तर तप का निरूपण करूंगा। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग, यह आभ्यन्तर तप हैं। विवेचन—आभ्यन्तरतप : स्वरूप और प्रयोजन—जो प्रायः अन्त:करण-व्यापार रूप हो, वह आभ्यन्तरतप है। इस तप में बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं होती। ये आभ्यन्तरतप विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा तप रूप में स्वीकृत होते हैं तथा इनका प्रत्यक्ष प्रभाव अन्तःकरण पर पड़ता है एवं ये मुक्ति के अन्तरंग कारण होते हैं। आभ्यन्तर तप के प्रकार और परिणाम-आभ्यन्तरतप छह हैं-(१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्त्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान और (६) व्युत्सर्ग। प्रायश्चित्त के परिणाम-भावशुद्धि, चंचलता का अभाव, शल्य से छुटकारा, धर्मदृढता आदि। विनय के परिणाम-ज्ञानप्राप्ति, आचारविशुद्धि, सम्यग् आराधना आदि। वैयावृत्य के परिणाम१. (क) कार्तिकेयानुप्रेक्षा मूल ४४७ से ४४९ तक (ख) भगवती आराधना मूल २३२-२३३ (ग) धवला १३/५,४,२६ २. 'प्रायेणान्तःकरणव्यापाररूपमेवाभ्यंतरं तपः।' 'आभ्यन्तरमप्रथितं कुशलजनेनैव तु ग्राह्यम्।'–बृहद्वृत्ति, पत्र ६००
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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