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________________ ५०८ उत्तराध्ययनसूत्र का प्रधान कारण है। मुमुक्षुओं तथा प्रशान्त तपस्वियों को ध्यान की सिद्धि के लिए इस तप का नित्य सेवन करना चाहिए। ६. विविक्तशयनासन : प्रतिसंलीनतारूप तप २८. एगन्तमणावाए इत्थी पसुविवजिए। __ सयणासणसेवणया विवित्तसयणासणं॥ [२८] एकान्त, अनापात (जहाँ कोई आता-जाता न हो) तथा स्त्री-पशु आदि से रहित शयन एवं आसन का सेवन करना, विविक्तशयनासन (प्रतिसंलीनता) तप है। विविक्तचर्या और संलीनता—विविक्तशय्यासन बाह्य तप का छठा भेद है। इस गाथा में इसे 'विविक्तशयनासन' कहा गया है, जबकि ८वीं गाथा में इसे 'संलीनता' कहा है। भगवतीसूत्र में इसका नाम 'प्रतिसंलीनता' है। वास्तव में मूल शब्द 'प्रतिसंलीनता' है, विविक्तशयनासन उसी का एक अवान्तर भेद है। संलीनता का एक प्रकार 'विविक्तचर्या' है। उपलक्षण से अन्य तीन “संलीनताएं' भी समझ लेनी चाहिए। यथा—इन्द्रियसंलीनता-(मनोज्ञ या अमनोज्ञ शब्दादि विषयों में राग-द्वेष न करना), कषायसंलीनता(क्रोधादि कषायों के उदय का निरोध करना) और योगसंलीनता-(मन-वचन काया के शुभ व्यापार में प्रवृत्ति और अशुभ से निवृत्ति करना) चौथी विविक्तचर्या संलीनता तो मूल में है ही।२ विविक्तशय्यासन के लक्षण-(१) मूलाराधना के अनुसार-जहाँ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के द्वारा चित्तविक्षेप नहीं होता, स्वाध्याय एवं ध्यान में व्याघात नहीं होता, तथा जहाँ स्त्री, पुरुष (पशु) और नपुंसक न हों, वह विविक्तशय्या है। भले ही उसके द्वार खुले हों या बन्द, उसका आंगन सम हो या विषम, वह गांव के बाह्यभाग में हो या मध्यभाग में शीत हो या उष्ण। (२) मलपाठ में विविक्तशयनासन का अर्थ स्पष्ट है। अथवा (३) एकान्त, (स्त्री-पशु-नपुंसक रहित—विविक्त), जन्तुओं की पीड़ा से रहित, शून्य घर आदि में निर्बाध ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदि की सिद्धि के लिए साधु के द्वारा किया जाने वाला विविक्तशय्यासन तप है। अथवा (४) भगवती आराधना के अनुसार-चित्त की व्याकुलता को दूर करना विविक्तशयनासन है। विविक्तिशय्या के प्रकार—शून्यगृह, गिरिगुफा, वृक्षमूल, विश्रामगृह, देवकुल, कूटगृह अथवा अकृतित्रम शिलागृह आदि। १. (क) चारित्रसारः १३६/४ (ख) धवला १३/५ (ग) अनगारधर्मामृत ७/३२/३८६ २. (क) उत्तरा. अ. ३० मूलपाठ गा. २८ और ८ (ख) भगवती २५/७/८०२ (ग) तत्त्वार्थसूत्र ९/१९ (घ) मूलाराधना ३/२०८ (ङ) से किं तं पडिसंलीणया? पडिसंलीणया चउव्विहा पण्णता, तं-इंदिअपडिसंलीणया कसायपडिलीणय, जोगपडिसंलीणया, विवित्तसयणासणसेवणया। -औपपातिक सू. १९ (च) उत्तरा (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र २७२ (क) मूलाराधना ३/२२८-२९-३१, ३२ (ख) उत्तरा अ. ३० गा. २८ (ग) सर्वार्थसिद्धि ९/१९/४३८ (घ) भगवती आराधना वि.६/३२/१९-'चित्तव्याकुलतापराजयो विविक्तशयनासनम्।'
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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