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तीसवाँ अध्ययन : तपोमार्गगति
५०७ [२७] आत्मा के लिए सुखावह वीरासन आदि उग्र आसनों का जो अभ्यास किया जाता है, उसे कायक्लेश तप कहा गया है।
विवेचन—कायक्लेश का लक्षण—शरीर को जानबूझ कर स्वेच्छा से बिना ग्लानि के कठिन तप की अग्नि में झोंकना एवं शरीर को सुख मिले, ऐसी भावना को त्यागना कायक्लेश है। प्रस्तुत गाथा में कायक्लेश का अर्थ किया गया है—वीरासन आदि कठोर आसनों का अभ्यास करना। स्थानांगसूत्र में कायक्लेश में ७ बातें निर्दिष्ट हैं-(१) स्थान-कायोत्सर्ग, (२) उकडू-आसन, (३) प्रतिमा-आसन, (४) वीरासन, (५) निषद्या, (६) दण्डायत-आसन और (७) लगण्ड-शयनासन। औपपातिकसूत्र में स्थानांगसूत्रोक्त ५ प्रकार तो ये ही हैं, शेष प्रकार इस प्रकार हैं-(६) आतापना, (७) वस्त्रत्याग, (८) अकण्डूयन (अंगन खुजाना), (९) अनिष्ठीवन (थूकना नहीं) और (१०) सर्वगात्रपरिकर्म-विभूषावर्जन। मूलाराधना और सर्वार्थसिद्धि के अनुसार खड़ा रहना, एक करवट से मृत की तरह सोना, वीरासनादि से बैठना इत्यादि तथा आतापनयोग (ग्रीष्मऋतु में धूप में, शीतऋतु में खुले स्थान में या नदीतट पर तथा वर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे सोना-बैठना), वृक्ष के मल में निवास, निरावरण शयन और नानाप्रकार की प्रतिमाएं और आसन इत्यादि करना कायक्लेश हैं।
कायक्लेश की सिद्धि के लिए अनगारधर्मामृत में छह उपायों का निर्देश किया गया है-(१) अयन (सूर्य की गति के अनुसार गमन करना), शयन (लगड, उत्तान, अवाक्, एकपार्श्व, अभ्रावकाश आदि अनेक प्रकार से सोना), आसन (समपर्यंक, असमपर्यंक, गोदोह, मकरमुख, गोशय्या, वीरासन, दण्डासन आदि), स्थान (साधार, सविचार, ससन्निरोध, विसृष्टांग, समपाद, प्रसारितबाहू आदि अनेक प्रकार के कायोत्सर्ग), अवग्रह (थूकना, खांसना, छींक, जंभाई, खाज, कांटा चुभना, पत्थर लगना आदि बाधाओं को जीतना, खिन्न न होना, केशलोच करना, अस्नान, अदन्तधावन आदि अनेक प्रकार के अवग्रह) और योग (आतापनयोग, वृक्षमूलयोग, शीतयोग आदि)।
कायक्लेश तप का प्रयोजन—यह देहदुःख को सहने के लिए, सुखविषयक आसक्ति को कम करने के लिए और प्रवचन की प्रभावना करने के लिए किया जाता है। शीत, वात और आतप के द्वारा आचाम्ल, निर्विकृति, एकलस्थान, उपवास, बेला, तेला आदि के द्वारा, क्षुधा, तृषा आदि बाधाओं द्वारा और विसंस्थुल आसनों द्वारा ध्यान का अभ्यास करने के लिए यह तप किया जाता है। जिसने इन बाधाओं का
किया है तथा जो इन मारणान्तिक कष्टों से खिन्न हो जाता है, वह ध्यान के योग्य नहीं बन सकता। सम्यग्दर्शनयुक्त इस तप से अन्तरंग बल की वृद्धि और कर्मों की अनन्त निर्जरा होती है। यह मोक्ष १. (क) जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष भा.२ पृ. ४६(ख)भगवती आराधना वि. ८६/३२/१८ कायसुखाभिलाषत्यजनं-कायक्लेशः।
(ग) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर भा. २ (घ) स्थानांग, स्थान ७/५५४ (ङ) औपपातिक. सू. १९ (च) मूलाराधना मू. ३५६ (छ) सर्वार्थसिद्धि ९/१९/४३८
'आतपस्थानं वृक्षमूलनिवासो, निरावरणशयनं बहुविधप्रतिमास्थानमित्येवमादिः कायक्लेशः।' २. ऊर्ध्वार्काद्ययनैः शवादिशयनैर्तीरासनाद्यासनैः। स्थानैरेकपदाग्रगामिभिरनिष्ठीवाग्रमावग्रहैः॥ योगैश्चातपनादिभिः प्रशमिना संतापनं यत्तनोः। कायक्लेशमिदं तपोऽर्युपमतौ सद्ध्यानसिद्ध्यै भजेत्।
-भगवती आराधना मू. २२२-२२७