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उत्तराध्ययनसूत्र ४. रसपरित्यागतप : एक अनुचिन्तन
२६. खीर-दहि-सप्पिमाई पणीयं पाणभोयणं।
___ परिवजणं रसाणं तु भणियं रसविवजणं॥ [२६] दूध, दही, घी आदि प्रणीत (स्निग्ध एवं पौष्टिक) पान, भोजन तथा रसों का त्याग करना रसपरित्यागतप है।
विवेचना-रसपरित्याग के विशिष्ट फलितार्थ—प्रस्तुत गाथा से रसपरित्याग के दो अर्थ फलित होते हैं—(१) दूध, दही, घी आदि रसों का त्याग और (२) प्रणीत (स्निग्ध) पान-भोजन का त्याग।
औपपातिकसूत्र में रसपरित्याग के विभिन्न प्रकार बतलाए हैं-(१) निर्विकृति (विकृति-विगई का त्याग), (२) प्रणीतरसत्याग, (३) आचामाम्ल (अम्लरस मिश्रित भात आदि का आहार), (४) आयामसिक्थ भोजन (ओसामण मिले हुए अन्नकण का भोजन), (५) अरस (हींग से असंस्कृत) आहार, (६) विरस (पुराने धान्य का) आहार, (७) अन्त्य (बालोर आदि तुच्छ धान्य का) आहार, (८) प्रान्त्य (शीतल) आहार एवं (९) रूक्ष आहार।
विकृति : स्वरूप और प्रकार—जिन वस्तुओं से जिह्वा और मन, दोनों विकृत होते हैं, ये स्वादलोलुप या विषयलोलुप बनते हैं, उन्हें 'विकृति' कहते हैं। विकृतियाँ सामान्यतया ५ मानी जाती है—दूध, दही, घी, तेल एवं गुड़ (मीठा या मिठाइयाँ)। ये चार महाविकृतियाँ मानी जाती हैं—मधु, नवनीत, मांस और मद्य । इनमें मद्य और मांस दो तो सर्वथा त्याज्य हैं। पूर्वोक्त ५ में से किसी एक का या इन सबका त्याग करना रसपरित्याग है। पं. आशाधरजी ने विकृति के ४ प्रकार बताए हैं—(१) गोरसविकृति–दूध, दही, घी, मक्खन आदि (२) इक्षुरसविकृति-गुड़, चीनी, मिठाई आदि, (३) फलरसविकृति-अंगूर, आम आदि फलों के रस, और (४) धान्यरसविकृति–तेल, मांड, पूड़े, हरा शाक, दाल आदि। रसपरित्याग करने वाला शाक, व्यंजन, तली हुई चीजों, नमक आदि मसालों को इच्छानुसार वर्जित करता है।
रसपरित्याग का प्रयोजन और परिणाम—इस तप का प्रयोजन स्वादविजय है। इस तप के फलस्वरूप साधक को तीन लाभ होते हैं—(१) संतोष की भावना, (२) ब्रह्मचर्य-साधना एवं (३) सांसारिक पदार्थों से विरक्ति। ५. कायक्लेशतप
२७. ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा।
उग्गा जहा धरिजन्ति कायकिलेसं तमाहियं॥ १. (क) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. २
(ख) औपपातिकवृत्ति, सूत्र १९ २. (क) सागारधर्मामृतटीका ५/३५
(ख) मूलाराधना ३/२१३ (ग) स्थानांग स्थान ४/१/२७४
(घ) वही, ९/६७४ (ङ) सागारधर्मामृत ५/३५ टीका
(च) मूलाराधना ३/२१५ ३. संतोषी भावितः सम्यग् ब्रह्मचर्य प्रपालितम्।
दर्शितं स्वस्य वैराग्यं, कुर्वाणेन रसोज्झनम्।।—मूलाराधना (अमितगति) ३/२१७