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तीसवाँ अध्ययन : तपोमार्गगति
विवेचन- अष्टविध गोचराग्र : स्वरूप एवं प्रकार — आठ प्रकार का अग्र—अर्थात् (अकल्प्यपिण्ड का त्याग कर देने से) प्रधान; जो गोचर अर्थात् — (उच्च-नीच - मध्यम समस्त कुलों (घरों) में सामान्य रूप से) गाय की तरह भ्रमण (चर्या) करना अष्टविध गोचराग्र कहलाता है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि प्रधान गोचरी के ८ भेद हैं। इन आठ प्रकार के गोचराग्र में पूर्वोक्त पेटा, अर्धपेटा आदि छह प्रकार और शम्बूकावर्त्ता तथा 'आयतं गत्वा प्रत्यागता' के वैकल्पिक दो भेद मिलाने से कुल आठ भेद गोचराग्र के होते हैं।
सात प्रकार की एषणाएँ — सात प्रकार की एषणाएँ सप्तविध प्रतिमाएँ (प्रतिज्ञाएँ) हैं। प्रत्येक प्रतिमा एक प्रकार तप का रूप है। क्योंकि उसी में सन्तोष करना होता है। ये सात एषणाएँ इस प्रकार हैं – (१) संसृष्टा — खाद्य वस्तु से लिप्त हाथ या बर्तन से भिक्षा लेना । ( २ ) असंसृष्टा - अलिप्त हाथ या पात्र से भिक्षा लेना । ( ३ ) उद्धृता — गृहस्थ द्वारा स्वप्रयोजनवश पकाने के पात्र से दूसरे पात्र में निकाला हुआ आहार लेना । ( ४ ) अल्पलेपा— अल्पलेप वाली चना, चिउड़ा आदि रूखी वस्तु लेना । (५) अवगृहीताखाने के लिए थाली में परोसा हुआ आहार लेना । (६) प्रगृहीता — परोसने के लिए कड़छी या चम्मच आदि से निकाला हुआ आहार लेना । (७) उज्झितधर्मा— अमनोज्ञ एवं त्याज्य (परिष्ठापनयोग्य) भोजन लेना ।
भिक्षाचर्या : वृत्तिसंक्षेप एवं वृत्तिसंख्यान - भिक्षाचर्या तप केवल साधु-साध्वियों के लिए है, गृहस्थों के लिए इसका औचित्य नहीं है । तत्त्वार्थसूत्र में इसका नाम 'वृत्तिपरिसंख्यान' मिलता है, जिसका अर्थ किया गया है - वृत्ति अर्थात् — आशा (लालसा) की निवृत्ति के लिए भोज्य वस्तुओं (द्रव्यों) की गणना करना कि मैं आज इतने द्रव्य से अधिक नहीं लगाऊँगा — पानी सेवन नहीं करूंगा, या मैं आज एक वस्तु का ही भोजन या अमुक पानमात्र ही करूंगा, इत्यादि प्रकार के संकल्प करना वृत्तिपरिसंख्यान है । वृत्तिपरिसंख्यान तप का अर्थ भगवती आराधना में किया गया है—आहारसंज्ञा पर विजय प्राप्त करना । विकल्प से वृत्तिसंक्षेप या वृत्तिपरिसंख्यान का अर्थ - भिक्षावृत्ति की पूर्वोक्त अष्टविध प्रतिमाएँ ग्रहण करना, ऐसा किया है। अथवा विविध प्रकार के अभिग्रहों का ग्रहण भी वृत्तिपरिसंख्यान है। इस प्रकार से भिक्षावृत्ति को विविध अभिग्रहों द्वारा संक्षिप्त करना वृत्तिसंक्षेप है । ३
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मूलाराधना में संसृष्ट, फलिहा, परिखा आदि वृत्तिसंक्षेप के ८ प्रकार अन्य रूप में मिलते हैं तथा औपपातिकसूत्र में वृत्तिसंक्षेप के 'द्रव्याभिग्रहचरक' से लेकर 'संख्यादत्तिक' तक ३० प्रकार बतलाए गए हैं। इन सबका अर्थ भिक्षापरक है।
१. (क) उत्तरा . ( गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, २७० (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ (ग) प्रवचनसारोद्धार ७४८-७४९ गा. ७४५
२. (क) प्रवचनसारोद्धार गाथा ६४७ से ७४३ तक
(ग) मूलाराधना, विजयोदयावृत्ति ३/३२०
(क) सर्वार्थसिद्ध ९/१९/४३८/८
(ग) धवला १३/५
(क) मूलाराधना, ३/२२० विजयोदया
(ग) मूलाराधना ३ / २०१
३.
४.
(ख) स्थानांग, ७/५४५ वृत्ति, पत्र ५८६, समवायांग, समवाय ६
(ख) भगवती आराधना वि. ६ / ३२/१८ (घ) भगवती आराधना मूल, २१८-२२१ (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०७
(घ) औपपातिकवृत्ति, सूत्र १९