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________________ ५०४ उत्तराध्ययनसूत्र कुछ विशिष्ट शब्दों के विशेषार्थ-ग्राम-बुद्धि या गुणों का जहाँ ग्रास (ह्रास) हो। नगर–जहाँ कर न लगता हो। निगम-व्यापार की मंडी। आकर-सोने आदि की खान। पल्ली-(ढाणी) वन में साधारण लोगों या चोरों की बस्ती। खेट-खेड़ा, धूल के परकोटे वाला ग्राम। कर्बट-कस्बा (छोटा नगर)। द्रोणमुख बंदरगाह, अथवा आवागमन के जल-स्थल उभयमार्ग वाली बस्ती। पत्तन-जहाँ सभी ओर से लोग आकर रहते हों। मडंब-जिसके निकट ढाई कोस तक कोई ग्राम न हो। सम्बाध—जहाँ ब्राह्मणादि चारों वर्गों की प्रचुर संख्या में बस्ती हो। विहार-मठ या देवमन्दिर। सन्निवेश-पड़ाव या मोहल्ला या यात्री-विश्रामस्थान । समाज–सभा या परिषद् । स्थली-ऊँचे टीले वाला या ऊँचा स्थान । घोषग्वालों की बस्ती। सार्थ—सार्थवाहों का चलता-फिरता पड़ाव । संवर्त्त-भयग्रस्त एवं विचलित लोगों की बस्ती। कोट्ट-किला, कोट या प्राकार आदि। वाट-चारों ओर कांटों या तारों की बाड़ लगाया हुआ स्थान, बाड़ा या पाड़ा (मोहल्ला) । रथ्या-गली। क्षेत्र-अवमौदर्य : स्वरूप और प्रकार-भिक्षाचर्या की दृष्टि से क्षेत्र की सीमा कम कर लेना क्षेत्रअवमौदर्य है। इसके लिए यहाँ गा. १६ से १८ तक में ग्राम से लेकर गृह तक २५ प्रकार के तथा ऐसे ही क्षेत्रों की निर्धारित सीमा में कमी करना बताया है। ___गाथा १९ में दूसरे प्रकार से क्षेत्र-अवमौदर्य बताया है, वह भिक्षाचरी के क्षेत्र में कमी करने के अर्थ में है। इसके ६ भेद हैं—(१) पेटा-जैसे पेटी (पेटिका) चौकोर होती है, वैसे ही बीच के घरों को छोड़ कर चारों श्रेणियों में भिक्षाचरी करना । (२) अर्धपेटा–केवल दो श्रेणियों से भिक्षा लेना, (३) गोमूत्रिकाचलते बैल के मूत्र की रेखा की तरह वक्र अर्थात् टेढ़े-मेढ़े भ्रमण करके भिक्षाटन करना । (४) पतंगवीथिकाजैसे पतंग उड़ता हुआ बीच में कहीं-कहीं चमकता है, वैसे ही बीच-बीच में घरों को छोड़ते हुए भिक्षाचरी करना। (५) शम्बूकावर्ता-शंख के आवर्तों की तरह गाँव के बाहरी भाग से भिक्षा लेते हुए अन्दर में जाना, अथवा गाँव के अन्दर से भिक्षा लेते हुए बाहर की ओर जाना। इस प्रकार ये दो प्रकार हैं। (६) आयतं-गत्वा-प्रत्यागता-गाँव की सीधी-सरल गली में अन्तिम घर तक जाकर फिर वापिस लौटते हुए भिक्षाचर्या करना। इसके भी दो भेद हैं—(१) जाते समय गली की एक पंक्ति से और आते समय दूसरी पंक्ति से भिक्षा ग्रहण करना, अथवा (२) एक ही पंक्ति से भिक्षा लेना, दूसरी पंक्ति से नहीं। इस प्रकार के संकल्पों (प्रतिमानों) से ऊनोदरी होती है, अतएव इन्हें क्षेत्र-अवमौदर्य में परिगणित किया गया है। ३. भिक्षाचर्यातप २५. अट्ठविहगोयरग्गं तु तहा सत्तेव एसणा। अभिग्गहा य जे अन्ने भिक्खायरियमाहिया॥ [२५] आठ प्रकार के गोचराग्र, सात प्रकार की एषणाएँ तथा अन्य अनेक प्रकार के अभिग्रहभिक्षाचर्यातप है। १. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा.४, पृ.३९३ २. (क) उत्तरा. (साध्वी चन्दना) टिप्पण पृ. ४५३-४५४ (ग) प्रवचनसारोद्धार गा.७४७-७४८ (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५-६०६ (घ) स्थानांग ६/५१४ वृत्ति, पत्र ३४७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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