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________________ उत्तराध्ययनसूत्र ५१८ भगवती आराधना के अनुसार ऐसे कायोत्सर्ग के चार प्रकार होते हैं - ( १ ) उत्थित - उत्थित — काया एवं ध्यान दोनों उन्नत (खड़ा हुआ) धर्म - शुक्लध्यान में लीन, (२) उत्थित - उपविष्ट — काया से उन्न (खड़ा ) किन्तु ध्यान से आर्त्त - रौद्रध्यानलीन अवनत, (३) उपविष्ट - उत्थित — काया से बैठा किन्तु ध्यान से खड़ा - यानी धर्म - शुक्लध्यानलीन एवं (४) उपविष्ट - उपविष्ट – काया और ध्यान दोनों से बैठा हुआ, अर्थात् — काया से बैठा और ध्यान से आर्त्तरौद्र ध्यानलीन। इन चारों विकल्पों में प्रथम और तृतीय प्रकार उपादेय हैं, शेष दो त्याज्य हैं।२ द्विविध तप का फल ३७. एयं तवं तु दुविहं जे सम्मं आयरे मुणी । से खिष्पं सव्वसंसारा विप्पमुच्चइ पण्डिए ॥ - त्ति बेमि । [३७] इस प्रकार जो पण्डित मुनि दोनों प्रकार के तप का सम्यक् आचरण करता है, वह शीघ्र ही समस्त संसार से विमुक्त हो जाता है। - ऐसा मैं कहता हूँ । ॥ तपोमार्गगति : तीसवाँ अध्ययन समाप्त ॥
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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