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उनतीसवां अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम
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संपूर्णरूप से इन शरीरों से रहित होकर वह ऋजुश्रेणी को प्राप्त होता है और एक समय में अस्पृशद्गतिरूप ऊर्ध्वगति से बिना मोड़ लिए (अविग्रहरूप से) सीधे वहाँ (लोकाग्र में) जाकर साकारापयोगयुक्त (ज्ञानोपयोगी अवस्था में) सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और समस्त दुःखों का अन्त कर देता है।
श्रमण भगवान् महावीर द्वारा सम्यक्त्वपराक्रम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कहा गया है, प्रज्ञापित किया गया, (बताया गया) है, प्ररूपित किया गया है, दर्शित और उपदर्शित किया गया है।
-ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन–ओरालियकम्माई.....विप्पजहित्ता : तात्पर्य प्रस्तुत सू. ७४ में मुक्त होते समय जीव क्या छोड़ता है, क्या शेष रहता है? कैसे और कितने समय में कहाँ जाता है? इसका निरूपण करते हुए कहा है कि वह औदारिक और कार्मण शरीर का तथा उपलक्षण से तैजस शरीर का सदा के लिए सर्वथा त्याग करता है।
श्रेणि और गति-श्रेणि दो प्रकार की होती है—ऋजु और वक्र । मुक्त जीव का उर्ध्वगमन ऋजुश्रेणि (आकाश प्रदेश की सरल-मोड़ रहित पंक्ति) से होता है, वक्र (मोड़ वाली) श्रेणि से नहीं। इसी प्रकार मुक्त जीव अस्पृशद्गति से जाता है, स्पृशद्गति से नहीं।
अस्पृशद्गति : आशय-(१) उत्तराध्ययन बृहवृत्ति के अनुसार स्वावगाढ़ आकाशप्रदेशों के स्पर्श के अतिरिक्त आकाशप्रदेशों का स्पर्श न करता हुआ जो गति करता है, वह अस्पृशद्गति है, (२) अभयदेव के अनुसार अन्तरालवर्ती आकाशप्रदेशों का स्पर्श न करते हुए गति करना अस्पृशद्गति है।
साकारोपयोग युक्त का आशय-जीव साकारोपयोग में अर्थात् ज्ञान की धारा में ही मुक्त होता है।
॥ सम्यक्त्वपराक्रम : उनतीसवाँ अध्ययन समाप्त॥
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१. (क) उत्तराः प्रियदर्शिनी भा. ४ (ख) 'औदारिककार्मणे शरीरे उपलक्षणत्वात्तैजसं च।' -बृहवृत्ति, पत्र ५९७ २. (क) अनुश्रेणि गतिः । अविग्रहा जीवस्य (मुच्यमानस्य)। -तत्त्वार्थ. अ. २, २७-२८
(ख) प्रज्ञापना. पद १६ ३. (क) अस्पृशद्गतिरिति-नायमर्थो यथा नायमाकाशप्रदेशान् स्पृशति, अपितु यावत्सु जीवोऽवगाढस्तावन्त एव स्पृशति, न तु ततोऽतिरिक्तमेकमपि प्रदेशम्।
-बृहद्वृत्ति, पत्र ५९७ (ख) अस्पृशन्ती सिद्ध्यन्तरालप्रदेशान् गतिर्यस्य सोऽस्पृशद्गतिः। अन्तरालप्रदेशस्पर्शने हि नैकेन समयेन सिद्धिः॥
-औपतातिक, सूत्र ४३, वृत्ति पृ. २१६