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उत्तराध्ययनसूत्र
[७३] (केवलज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् ) शेष आयु को भोगता हुआ, जब अन्तर्मुहूर्त-परिमित आयु शेष रहती है, तब अनगार योगनिरोध में प्रवृत्त होता है। उस समय सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति नामक शुक्लध्यान ध्याता हुआ सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध करता है । फिर वचनयोग का निरोध करता है। उसके पश्चात् आनापान (अर्थात् श्वासोच्छ्वास) का निरोध करता है। श्वासोच्छ्वास का निरोध करके स्वल्प(मध्यम गति से) पांच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण-काल जितने समय में 'समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्ति' नामक (चतुर्थ) शुक्लध्यान में लीन हुआ अनगार वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र, इन चार कर्मों का — एक साथ क्षय करता है।
विवेचन- योगनिरोध : स्वरूप और क्रम — योगनिरोध का अर्थ है— मन, वचन और काय की प्रवृत्ति का सर्वथा रुक जाना । केवली की आयु जब अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाती है, तब वह योगनिरोध करता है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है— शुक्लध्यान के तीसरे पाद में प्रवर्त्तमान साधक सर्वप्रथम प्रतिसमय मन के पुद्गलों और व्यापार का निरोध करते-करते असंख्यात समयों में उसका पूर्णतया निरोध कर लेता है। फिर वचन के पुद्गलों और व्यापार का प्रतिसमय का निरोध करते-करते असंख्यात समयों में उसका (वचनयोग का) पूर्ण निरोध कर लेता है । तत्पश्चात् प्रतिसमय काययोग के पुद्गलों और व्यापार का निरोध करते-करते असंख्यात समयों में श्वासोच्छ्वास का पूर्ण निरोध कर लेता है । १
शैलेशी - अवस्था - प्राप्ति: क्रम और अवधि—योगों का निरोध होते ही अयोगी या शैलशी अवस्था प्राप्त हो जाती है। इसे अयोगीकेवलीगुणस्थान ( १४ वां गुणस्थान) कहते हैं। न तो विलम्ब से और न शीघ्रता से, किन्तु मध्यमगति से 'अ इ उ ऋ लृ ' इन पांच लघु अक्षरों का उच्चारण करने जितना काल १४ वें अयोगकेवलीगुणस्थान की भूमिका का होता है। इस बीच 'समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्ति' नामक शुक्लध्यान का चतुर्थपाद होता है । इस ध्यान के प्रभाव से चार अघाती (भवोपग्राही) कर्म सर्वथा क्षीण हो जाते हैं । उसी समय आत्मा औदारिक तैजस और कार्मण शरीर को छोड़कर देहमुक्त होकर सिद्ध हो जाता है।
समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्ति शुक्लध्यान—वह है, जिसमें मानसिक, वाचिक एवं कायिक, समस्त क्रियाओं का सर्वथा अन्त हो जाता है तथा जो सर्वकर्मक्षय करने से पहले निवृत्त नहीं होता । यह शैलशी अर्थात् मेरुपर्वत के समान निष्कम्प — अचल आत्मस्थिति है । २
मोक्ष की ओर जीव की गति एवं स्थिति का निरूपण
७४. तओ ओरालियकम्माई च सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहित्ता उज्जुसेढिपत्ते, अफुसमाणगई, उट्टं एगसमएणं अविग्गहेणं तत्थ गन्ता, सागारोवउत्ते सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चर, परिनिव्वाएइ, सव्वदुक्खाणमन्तं करेइ ॥
एस खलु सम्मत्तपरक्कमस्स अज्झयणस्स अट्ठे समणेणं भगवया महावीरेणं आघविए, पन्नविए, परूविए, दंसिए, उवदंसिए । —त्ति बेमि ।
[७४] उसके बाद वह औदारिक और कार्मण शरीर को सदा के लिए सर्वथा परित्याग कर देता है ।
१. (क) उत्तरा . ( गुजराती भाषान्तर) भा. २, पत्र २६२ (ख) औपपातिक सूत्र, सू. ४३ २. उत्तरा (साध्वी चन्दना) (टिप्पण), पृ. ४५०