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उत्तराध्ययनसूत्र
६६. जिब्भिन्दियनिग्गहेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
जिब्भिन्दियनिग्गहेणं मणुनामणुन्नेसुरसेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बन्धइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ।
[६६ प्र.] भन्ते ! जिह्वेन्द्रिय के निग्रह से जीव क्या प्राप्त करता है?
६६. जिह्वेन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ रसों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है। (इससे फिर) तन्निमित्तिक कर्म का बन्ध नहीं करता। पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है।
६७. फासिन्दियनिग्गहेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
फासिन्दियनिग्गहेणं मणुनामणुनेसु फासेंसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बन्धइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ।
[६७ प्र.] स्पर्शेन्द्रियनिग्रह से भगवन् ! जीव क्या प्राप्त करता है?
[उ.] स्पर्शेन्द्रिय-निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्शों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है। (इससे फिर) राग-द्वेषनिमित्तक कर्म का बन्ध नहीं करता और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता
विवेचन-पंचेन्द्रियनिग्रह : स्वरूप और परिणाम-पांचों इन्द्रियों के विषय क्रमशः शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श हैं। प्रत्येक इन्द्रिय का स्वभाव अपने-अपने विषय की ओर दौड़ना या उनमें प्रवृत्त होना है। इन्द्रियनिग्रह का अर्थ है-अपने विषय की ओर दौड़ने वाली इन्द्रिय को उस ओर से हटाना। मनोज्ञअमनोज्ञ प्रतीत होने वाले विषयों के प्रति होने वाले रागद्वेष से रहित होना, मन को समत्व में स्थापित करना। प्रत्येक इन्द्रिय के निग्रह का परिणाम भी उसके विषय के प्रति रागद्वेष न करना है, ऐसा करने से उस निमित्त से होने वाला कर्मबन्ध नहीं होता। साथ ही पहले के बंधे हुए कर्मों की निर्जरा होती है। ६७-७१. कषायविजय एवं प्रेय-द्वेष-मिथ्यादर्शनविजय का परिणाम
६८. कोहविजएणं भन्ते! जीवे किं जणयइ? कोहविजएणं खन्तिं जणयइ, कोहवेयणिजं कम्मं न बन्धइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ। [ ६८ प्र.] भन्ते ! क्रोधविजय से जीव क्या प्राप्त करता है?
[उ.] क्रोधविजय से जीव क्षान्ति को प्राप्त होता है। क्रोधवेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता; पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है।
६९. माणविजएणं भंते! जीवे किं जणयड? माणविजएणं मद्दवं जणयइ, माणवेयणिजं कम्मं न बन्थइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ। [६९ प्र.] भन्ते ! मानविजय से जीव क्या प्राप्त करता है? .
[उ.] मानविजय से जीव मृदुता को प्राप्त होता है। मानवेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता; पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। १. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ४, पृ. ३४६ से ३४७ तक का सारांश