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________________ उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम ४८९ ७०. मायाविजएणं भंते! जीवे किं जणवइ? मायाविजएणं उज्जुभावं जणयइ, मायावेयणिजं कम्मं न बन्धइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ। [७० प्र.] भन्ते ! मायाविजय से जीव क्या प्राप्त करता है? (उ.) मायाविजय से जीव ऋजुता को प्राप्त होता है। मायावेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। ७१. लोभविजएणं भंते! जीवे किं जणयइ? लोभविजएणं संतोसीभावं जणयइ, लोभवेयणिजं कम्मं न बन्धइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ। [७१ प्र.] भन्ते ! लोभविजय से जीव को क्या प्राप्त होता है? [उ.] लोभविजय से जीव सन्तोषभाव को प्राप्त होता है। लोभवेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। ७२. पेज-दोस-मिच्छादसणविजएणं भंते किं जणयइ? पेज-दोस-मिच्छादसणविजएणं नाण-दंसण-चरित्ताराहणयाए अब्भुढेइ। अट्ठविहस्स कम्मस्स कम्मगण्ठिविमोयणयाए तप्पढमयाए जहाणुपुट्विं अट्ठवीसइविहं मोहणिजं कम्मं उग्घाएइ, पंचविहं नाणावरणिज, नवविहं दंसणावरणिजं, पंचविहं अन्तरायं-एए तिन्नि वि कम्मसे जुगवं खवेइ। तओ पच्छा अणुत्तरं, अणंतं, कसिणं, पडिपुण्णं, निरावरणं, वितिमिरं, विसुद्धं, लोगालोगप्पभावगं, केवल-वरनाणदंसणं समुप्पाडेइ। जाव सजोगी भवइ ताव य इरियावहियं कम्मं बन्धइ सुहफरिसं, दुसमयठिइसं। तं पढमसमए बद्धं, बिइयसमए वेइयं, तइयसमए निजिण्णं। तं बद्धं, पुढं, उदीरियं, वेइयं, निजिण्णं सेयाले अअकम्मं चावि भवइ। _ [७२ प्र.] भन्ते ! प्रेय (राग), द्वेष और मिथ्यादर्शन पर विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है? [उ.] प्रेय, द्वेष और मिथ्यादर्शन पर विजय पाने से जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए उद्यत होता है। आठ प्रकार के कर्मों की ग्रन्थि को खोलने के लिए सर्वप्रथम यथाक्रम से मोहनीयकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों का क्षय करता है। तदनन्तर ज्ञानावरणीयकर्म की पांच, दर्शनावरणीयकर्म की नौ और अन्तरायकर्म की पांच; इन तीनों कर्मों की प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है। तत्पश्चात् वह अनुत्तर, अनन्त, कृत्स्न (-सम्पूर्ण-वस्तुविषयक), प्रतिपूर्ण, निरावरण, अज्ञानतिमिर से रहित, विशुद्ध और लोकालोक-प्रकाशक श्रेष्ठ केवलज्ञान-केवलदर्शन को प्राप्त करता है। जब तक वह सयोगी रहता है, तब तक ऐपिथिक कर्म बांधता है। वह बन्ध भी सुखस्पर्शी (सातावेदनीयरूप पुण्यकर्म) है। उसकी स्थिति दो समय की है। प्रथम समय में बन्ध होता है, द्वितीय समय में वेदन होता है और तृतीय समय में निर्जरा होती है। __ वह क्रमशः बद्ध होता है, स्पृष्ट होता है, उदय में आता है, फिर वेदन किया (भोगा) जाता है, निर्जरा को प्राप्त (क्षय) हो जाता है। (फलतः) आगामी काल में (अर्थात् अन्त में) वह कर्म अकर्म हो जाता है।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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