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उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम
सर्वोत्कृष्ट ज्ञान-दर्शन (केवलज्ञान - केवलदर्शन) के साथ अपनी आत्मा को संयोजित करता ( जोड़ता हुआ तथा उनमें सम्यक् प्रकार से भावित तन्मय करता हुआ विचरता है।
चारित्रसम्पन्नता : तीन परिणाम - (१) शैलेशीभाव की प्राप्ति, (२) केवलिसत्क चार कर्मों का क्षय और (३) सिद्ध, बुद्ध, मुक्त दशा की प्राप्ति ।
'सेलेसी भावं जणयइ' : तीन अर्थ - (१) शैलेश — मेरुपर्वत की तरह निष्कम्प अवस्था को प्राप्त होता है, (२) शैल—चट्टान की भांति स्थिर ऋषि- शैलर्षि हो जाता है, अथवा (३) शील+ ईश — शीलेश, शीलेश की अवस्था शैलेशी, इस दृष्टि से शैलेशी का अर्थ होता है— शील चारित्र ( संवर) की पराकाष्ठा को पहुँचा हुआ
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६२-६६. पांचों इन्द्रियों के निग्रह का परिणाम
६३. सोइन्दियनिग्गणं भंते! जीवे किं जणय ?
सोइन्दियनिग्गणं मणुन्नामणुन्नेसु सद्देसु रागद्दोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बन्धई, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ।
[६३ प्र.] भंते! श्रोत्रेन्द्रिय का निग्रह करने से जीव क्या प्राप्त करता है?
[3.] श्रोत्रेन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । ( फिर वह) तत्प्रत्ययिक ( - शब्दनिमित्तक) कर्म नहीं बांधता और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है।
६४. चक्खिन्दियनिग्गहेणं भंते! जीवे किं जणय ?
चक्खिन्दियनिग्गणं मणुन्नामणुत्रेसु रूवेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बन्धइ, पुव्वबद्धं च निज्जरे ।
[६४ प्र.] भंते! चक्षुरिन्द्रिय के निग्रह से जीव क्या प्राप्त करता है?
[उ.] चक्षुरिन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूपों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । ( इससे फिर ) रूपनिमित्तक कर्म का बन्ध नहीं करता और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है ।
६५. घाणिन्दियनिग्गहेणं भंते! जीवे किं जणय ?
घाणिन्दियनिग्गहेणं मणुन्नामणुन्नेसु गन्धेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बन्धइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ।
[६५ प्र.] भन्ते ! घ्राणेन्द्रिय के निग्रह से जीव क्या प्राप्त करता है?
[उ.] घ्राणेन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ गन्धों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । ( इससे फिर) राग-द्वेषनिमित्तक कर्म का बन्ध नहीं करता और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है।
१. उत्तरा (गुजराती भाषान्तर) भा. २, पत्र २५८
२. (क) उत्तरज्झयणाणि ( टिप्पण) (मुनि नथमलजी) पृ. २४७
(ख) विशेषावश्यकभाष्य गा. ३६८३-३६८५