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उत्तराध्ययनसूत्र
६२. चरित्तसंपन्नयाए णं भन्ते! जीवे किं जणयइ?
चरित्तसंपन्नयाए णं सेलेसीभावं जणयइ। सेलेसिं पडिवने य अणगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ। तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाएइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेइ।
[६२ प्र.] भन्ते! चारित्रसम्पन्नता से जीव को क्या प्राप्त होता है?
[उ.] चारित्रसम्पन्नता से (साधक) शैलेशीभाव को प्राप्त कर लेता है। शैलेशीभाव को प्राप्त अनगार चार अघाती कर्मों का क्षय करता है। तत्पश्चात् वह सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और समस्त दुःखों का अन्त कर देता है।
विवेचन-ज्ञानसम्पन्नता : स्वरूप और परिणाम-प्रसंगवश ज्ञान का अर्थ यहाँ श्रुतज्ञान किया गया है; उससे सम्पन्न-सम्यक् प्रकार से श्रुतज्ञानप्राप्ति से युक्त। इसके चार परिणाम-(१) सर्वपदार्थों का ज्ञान, (२) संसार में विनाशरहितता (नहीं भटकता), (३) ज्ञान, विनय, तप और चारित्र के योगों की संप्राप्ति और (४) स्वसिद्धान्त-परसिद्धान्त विषयक संशयछेदनकर्तृत्व।
सव्वभावाहिगमं–नन्दीसूत्र के अनुसार श्रुतज्ञानसम्पन्न साधक उपयोगयुक्त होने पर सर्व द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव को जान-देख सकता है।
संसारे न विणस्सइ : आशय-संसार में विनष्ट नहीं होता ( रुलता नहीं), अर्थात् मोक्ष-मार्ग से अधिक दूर नहीं होता।
नाग-विणय संपाउणइ-श्रुतज्ञानी अभ्यास करता-करता ज्ञान अर्थात् अवधि आदि ज्ञानों को तथा विनय, तप और चारित्र की पराकाष्ठा (योगों) को प्राप्त कर लेता है।
समय-परसमय-संघायणिजे : दो तात्पर्य -(१) श्रुतज्ञानी स्वमत एवं परमत के विद्वानों के संशयों को सम्यक् प्रकार से संघातनीय अर्थात् मिटाने—छिन्न करने के योग्य होता है, (२) स्वसमय-परसमय के व्यक्तियों के संशयछेदनार्थ संघातनीय-प्रामाणिक पुरुष के रूप में मिलन के योग्य केन्द्र (केन्द्रीभूत पुरुष) होता है।
दर्शनसम्पन्नता : स्वरूप और परिणाम-दर्शन का अर्थ यहाँ क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) किया गया है। उक्त दर्शनसम्पन्नता से व्यक्ति भवभ्रमणहेतुरूप मिथ्यात्व का सर्वथा उच्छेद करता है, अर्थात्वह क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। तत्पश्चात् उसका प्रकाश बुझता नहीं । इसका तात्पर्य यह है कि उत्कृष्टतः उसी भव में, मध्यम और जघन्य की अपेक्षा से तीसरे या चौथे भव में केवलज्ञान का प्रकाश प्राप्त हो जाने से वह बुझता नहीं, यानी उसके केवलज्ञान-केवलदर्शन का प्रकाश प्रज्वलित रहता है। फिर वह १. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. २, पत्र २५८ २. 'तत्थ दव्वओ णं सुअनाणी उवउत्ते सव्वदव्वाई जाणइ पासइ, खित्तओ णं स. उ.सव्वं खेत्तं जा. पा. कालओ
णं सु. उ. सव्वकालं जा. पा.,भावओ णं सु. उ. सव्वे भावे जा. पासइ।' -नन्दीसूत्र सू. ५७ ३. उत्तरा. ( गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र २५८ ४. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र २५८ ५. (क) उत्तरायणिज्जं (टिप्पण) (मु. नथमलजी) पृ. २४७
(ख) स्वपरसमयंयोः संघातनीयः-प्रमाणपुरुषतया मीलनीय:... भवति । इह च स्वपरसमयशब्दाभ्यां तद्वेदिनः पुरुषा उच्यन्तेः तेष्वेव संशयादिव्यवच्छेदाय मीलनसंभवात् ।