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________________ उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम ४८५ समाधारणा है। इसके तीन परिणाम होते हैं--(१) वाणा के विषयभूत दर्शनपर्यायों की विशुद्धि, (२) सुलभबोधित्व एवं (३) दुर्लभबोधित्व का क्षय। निष्कर्ष-वचन को सतत स्वाध्याय में लगाने से प्रज्ञापनीय दर्शनपर्याय विशुद्ध बनते हैं, फलतः अन्यथा निरूपण नहीं होता : दर्शनपर्याय की विशुद्धि ज्ञानपायों के उदय से होती है। कायसमाधारणा : स्वरूप और परिणाम-काय को संयम की शुद्ध (निरवद्य) प्रवृत्तियों में भलीभांति संलग्न रखना कायसमाधारणा है। इसके परिणाम चार हैं-- १) चारित्रपर्यायों की शुद्धि, (२) यथाख्यातचारित्र की विशद्धि (प्राप्ति), (३) केवलियों में विद्यमान चार कर्मों का क्षय और अन्त में (४) सिद्धदशा की प्राप्ति ५९-६१. ज्ञान-दर्शन-चारित्रसम्पन्नता का परिणाम ६०. नाणसंपन्नयाए णं भन्ते! जीवे किं जणयइ? नाणसंपन्नयाए णं जीवे सव्वभावाहिगमं जणयइ। नाणसंपन्ने णं जीवे चाउरन्ते संसार-कन्तारे नविणस्सइ। जहा सूई ससुत्ता, पडिया विन विणस्सइ। तहा जीवे ससुत्ते संसारे न विणस्सइ॥ नाण-विणय-तव-चरित्तजोगे संपाउणइ, ससमय-परसमयसंघायणिजे भवइ। [६० प्र.] भन्ते ! ज्ञानसम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त करता है? [उ.] ज्ञानसम्पन्नता से जीव सब भावों को जानता है। ज्ञानसम्पन्न जीव चातुर्गतिक संसाररूपी कान्तार (महारण्य) में विनष्ट नहीं होता। __ जिस प्रकार सूत्र (धागे) सहित सूई कहीं गिर जाने पर भी विनष्ट नहीं होती (खोती नहीं), उसी प्रकार ससूत्र (शास्त्रज्ञान सहित) जीव संसार में भी विनष्ट नहीं होता। (वह) ज्ञान, विनय, तप और चारित्र के योगों को प्राप्त होता है, तथा स्वसमय-परसमय में संघातनीय हो जाता है। ६१. दंसणसंपन्नयाए णं भन्ते! जीवे किं जणयइ? दसणसंपन्नयाए णं भवमिच्छत्तछेयणं करेइ, परं न विझायइ।अणुत्तरेणं नाणदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे, सम्मं भावेमाणे विहरइ। [६१ प्र.] भंते ! दर्शनसम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त करता है? [उ.] दर्शनसम्पन्नता से संसार के हेतु-मिथ्यात्व का छेदन करता है। उसके पश्चात् सम्यक्त्व का प्रकाश बुझता नहीं है। (फिर वह) अनुत्तर ( श्रेष्ठ) ज्ञान-दर्शन से आत्मा को संयोजित करता हुआ तथा उनसे आत्मा को सम्यक् रूप से भावित करता हुआ विचरण करता है। १. (क) वाक्समाधारणया स्वाध्याय एव सन्निवेशनात्मिकया। (ख) उत्तरज्झयणाणि (टिप्पण) (मुनि नथमलजी), पृ. २४७ २. (क) कायसमाधारणया-संयमयोगेषु शरीरस्य सम्यगव्यवस्थापनरूपया। (ख) उत्तरज्झयणाणि (टिप्पण) (मुनि नथमलजी), पृ. २४७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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