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उनतीसवाँ अध्ययन: सम्यक्त्वपराक्रम
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५५. वयगुत्तयाए णं भन्ते! जीवे किं जणयइ!
वयगुत्तयाए णं निव्वियारं जणयइ। निव्वयारे णं जीवे वइगुत्ते अज्झप्पजोगज्झाणगुत्ते यावि भवइ।
[५५ प्र.] भन्ते! वचनगुप्ति से जीव क्या प्राप्त करता है ?
[उ.] वचनगुप्ति से जीव निर्विकार भाव को प्राप्त होता है। निर्विकार (या निर्विचार) जीव सर्वथा वाग्गुप्त तथा अध्यात्मयोग के साधनभूत ध्यान से युक्त होता है।
५६. कायगुत्तयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? कायगुत्तयाए णं संवरं जणयइ। संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करेइ। [५६ प्र.] कायगुप्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है ?
[उ.] कायगुप्ति से जीव संवर (अशुभ आश्रव-प्रवृत्ति के निरोध) को प्राप्त होता है। संवर से कायगुप्त होकर (साधक) फिर से होने वाले पापाश्रव का निरोध करता है।
विवेचन : मनोगुप्ति : स्वरूप और परिणाम–अशुभ अध्यवसाय में जाते हुए मन को रोकना मनोगुप्ति है। शास्त्र में मनोगुप्ति के तीन रूप बताए हैं-(१) आर्तध्यान और रौद्रध्यान का त्याग करना, (२) जिसमें धर्मध्यान का अनुबन्ध हो तथा जो शास्त्रानुसार परलोक का साधन हो, ऐसी माध्यस्थ परिणति हो और (३) शुभ एवं अशुभ मनोवृत्ति के निरोध से योगनिरोधावस्था में हाने वाली आत्मस्वरूपावस्थानरूप परिणति हो। यही तथ्य योगशास्त्र में बताया है—समस्त कल्पनाओं से रहित होना और समभाव में प्रतिष्ठित हो कर आत्मस्वरूप में रमण करना मनोगुप्ति है। मनोगुप्ति के तीन सुपरिणाम हैं—(१) एकाग्रता, (२) अशुभ अध्यवसायों से मन की रक्षा और (३) समता-आत्मस्वरूपरमणता तथा ज्ञानादि रत्नत्रय रूप संयम की आराधना । मनोगुप्ति में अकुशल मन का निरोध और कुशल मन को प्रवृत्ति होती है, वही एकाग्रता है। इसमें चित्त का सर्वथा निरोध न होकर, अनेक आलम्बनों में बिखरा मन एक आलम्बन में स्थिर हो जाता है।
वचनगुप्ति : स्वरूप और परिणाम-वचनगुप्ति के दो रूप हैं-(१) सर्वथा वचन का निरोधमौन और (२) अशुभ (अकुशल) वचन का निरोध एवं शुभ (कुशल) वचन में प्रवृत्ति । इसके परिणाम भी दो हैं—(१) निर्विचारता—विचारशून्यता, अथवा निर्विकारता—विकथा से मुक्त होना। (२) मौन से आत्मलीनता अथवा धर्मध्यान आदि अध्यात्मयोग से युक्तता। ___ कायगुप्ति : स्वरूप और परिणाम—शरीर को अशुभ चेष्टाओं—प्रवृत्तियों या कार्यों से हटा कर शुभचेष्टाओं —प्रवृत्तियों या कार्यों में लगाना कायगुप्ति है। इसके दो परिणाम : (१) अशुभ कायिक प्रवृत्ति से समुत्पन्न आश्रव का निरोध रूप संवर तथा (२) हिंसादि आश्रवों का निरोध।२ १. (क) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. २, पत्र २५५ (ख) विमुक्तकल्पनाजालं, समत्वे सुप्रतिष्ठितम्।
आत्मारामं सनस्त : मनोगुप्तिरुदाहृता।। -योगशास्त्र २. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा.४, पृ. ३३१ (ख) उत्तरण्झयणाणि (टिप्पण) (मुनि नथमलजी) पृ. २४६ ३. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ४ पृ. ३३३ (ख) उत्तरा. टिप्पण, पृ. २४६