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५० से ५२. भाव - करण-योग-सत्य का परिणाम ५१. भावसच्चेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
भावसच्चेणं भावविसोहीं जणय । भावविसोहीए वट्टमाणे जीवे अरहन्तपन्नत्तस्स धम्मस्स आराहणयाए अब्भुट्ठेइ । अरहन्तपन्नत्तस्स धम्मस्स आराहणयाए अब्भुट्ठित्ता परलोग-धम्मस्स आराहए हवइ ।
उत्तराध्ययनसूत्र
[५१ प्र.] भंते ! भावसत्य (अन्तरात्मा की सच्चाई) से जीव क्या प्राप्त करता है ?
[3] भावसत्य से जीव भावविशुद्धि प्राप्त करता है। भावविशुद्धि में वर्त्तमान जीव अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए उद्यत होता है । अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म की आराधना में उद्यत व्यक्ति परलोक-धर्म का आराधक होता है।
५२. करणसच्चेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
करणसच्चेणं करणसत्तिं जणयइ । करणसच्चे वट्टमाणे जीवे जहावाई तहाकारी यावि भव । [५२ प्र.] भन्ते ! करणसत्य (कार्य की सच्चाई) से जीव क्या प्राप्त करता है ?
[.] करणसत्य से जीव करणशक्ति (प्राप्त कार्य को सम्यक्तया सम्पन्न करने की क्षमता) प्राप्त कर लेता है। करणसत्य में वर्त्तमान जीव 'यथावादी तथाकारी' (जैसा कहता है, वैसा करने वाला) होता है।
५३. जोगसच्चेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
जोगसच्चेणं जोगं विसोहेइ ।
[५३ प्र.] भन्ते ! योगसत्य से जीव क्या प्राप्त करता है ?
[उ.] योगसत्य से (मन, वचन और काय के प्रयत्नों की सचाई से) जीव योगों को विशुद्ध कर लेता है।
विवेचन - सत्य की त्रिपुटी — सत्य के अनेक पहलू हैं। पूर्ण सत्य को प्राप्त करना सामान्य साधक के लिए अतीव दुःशक्य है । परन्तु सत्यार्थी और मुमुक्षु साधक के लिए सत्य की पूर्णता तक पहुँचने हेतु प्रस्तुत तीन सूत्रों (५१-५२-५३ ) में प्रतिपादित त्रिपुटी की आराधना आवश्यक । क्योंकि सत्य का प्रवाह तीन धाराओं से बहता है— भावों (आत्मभावों) की सत्यता से, करण - सत्यता से और योग- सत्यता से । इन तीनों का मुख्य परिणाम तीनों की विशुद्धि और क्षमता में वृद्धि है ।
५३ से ५५. गुप्ति की साधना का परिणाम
५४. मणगुत्तयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
गुत्ता गं जीवे गग्गं जणयइ । एगग्गचित्ते णं जीवे मणगुत्ते संजमाराहए भवइ ।
[५४ प्र.] भन्ते ! मनोगुप्ति से जीव क्या प्राप्त करता है ?
[उ.] मनोगुप्ति से जीव एकाग्रता प्राप्त करता है। एकाग्रचित्त वाला जीव (अशुभ विकल्पों से) मन की रक्षा करता है और संयम का आराधक होता है।
१. उत्तरा . ( गुजराती भाषान्तर का सारांश) भा. २, पत्र २५४-२५५