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________________ उत्तराध्ययनसूत्र सद्भाव-प्रत्याख्यान स्वरूप और परिणाम — सर्वान्तिम एवं परमार्थतः होने वाले प्रत्याख्यान को सद्भावप्रत्याख्यान कहते हैं । यह सर्वसंवररूप या शैलेशी - अवस्था रूप होता है। अर्थात् - १४वें अयोगीकेवलीगुणस्थान में होता है। यह पूर्ण प्रत्याख्यान होता है। इससे पूर्व किये गए सभी प्रत्याख्यान अपूर्ण होते हैं, क्योंकि उनके फिर प्रत्याख्यान करने की अपेक्षा शेष रहती है। जबकि १४ वें गुणस्थान की भूमिका में आगे फिर किसी भी प्रत्याख्यान की आवश्यकता या अपेक्षा नहीं रहती। इसीलिए इसे सद्भाव या 'पारमार्थिक प्रत्याख्यान' कहते हैं। इस भूमिका में शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण पर आरूढ साधक सिद्ध हो जाता है, इसलिए स्वाभाविक है कि फिर उसे आश्रव, बन्धन, राग-द्वेष या तज्जनित जन्ममरणं की भूमिका में पुन: लौटना नहीं होता, सर्वथा अनिवृति हो जाती है। चार आघातीकर्म भी सर्वथा क्षीण हो जाते हैं । ४७८ केवली कम्मंसे खवेइ : भावार्थ- केवली में रहने वाले चार भवोपग्राही कर्मों के शेष रहे अंशों (प्रकृतियों का ) भी अस्तित्व समाप्त हो जाता है। योग-प्रत्याख्यान और शरीर- प्रत्याख्यान–योग - प्रत्याख्यान का अर्थ है— मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों का त्याग और शरीर- प्रत्याख्यान अर्थात् शरीर से मुक्त हो जाना। ये दोनों क्रमभावी दशाएँ हैं । पहले अयोगिदशा आती है, फिर मुक्तदशा । अयोगिदशा प्राप्त होते ही कर्मों का आश्रव और बन्ध दोनों समाप्त हो जाते हैं; पूर्णसंवरदशा, सर्वथा कर्ममुक्तदशा आ जाती है। ऐसी स्थिति में आत्मा शरीर से सदासदा के लिए मुक्त हो जाती है। यह लोकाग्रभाग में जाकर अपनी शुद्ध स्वसत्ता में स्थिर हो जाती है । उसमें ज्ञानादि अनन्तचतुष्टय रहते हैं। अपने स्वाभाविक गुणों से सम्पन्न हो जाती है। यही योग- प्रत्याख्यान और शरीर- प्रत्याख्यान का रहस्य है । ३ निष्कर्ष - प्रस्तुत ९ सूत्री प्रत्याख्यान का उद्देश्य मुक्ति की ओर बढ़ना और मुक्तदशा प्राप्त करना है, जो कि साधक का अन्तिम लक्ष्य है। ४२. प्रतिरूपता का परिणाम ४३. पडिरूवयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? पडिरूवयाए णं लाघवियं जणयइ । लहुभूए णं अप्पमत्ते, पागडलिंगे, पसत्थलिंगे, विसुद्धसम्मत्ते, सत्त-समिइसमत्ते, सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु वीससणिज्जरूवे, अप्पडिलेहे, जिइन्दिए, विउलतवसमिइसमन्नागए यावि भवइ । [४३ प्र.] प्रतिरूपता से, भगवन् ! जीव क्या प्राप्त करता है ? [3.] प्रतिरूपता से जीव लघुता ( लाघव) प्राप्त करता है । लघुभूत होकर जीव अप्रमत्त, प्रकट लिंग (वेष) वाला, प्रशस्त लिंग वाला, विशुद्ध सम्यक्त्व, सत्त्व (धैर्य) और समिति से परिपूर्ण, समस्त १. (क) तत्र सद्भावेन — सर्वथा पुनः करणाऽसंभवात् परमार्थेन प्रत्याख्यानं सद्भावप्रत्याख्यानं, सर्वसंवररूपा शैलेशीति यावत् । (ख) न विद्यते निवृति: मुक्तिं प्राप्य निवर्त्तन यस्मिंस्तद् अनिवृत्तिः शुक्लध्यानं चतुर्थभेदरूपं जनयति । — बृहद्वृत्ति, पत्र ५८९ २ 'केवलीकम्मंसे— कार्मग्रन्थिकपरिभाषयांऽशशब्दस्य सत्पर्यायत्वात् सत्कर्मणि - केवलिसत्कर्माणि भवोपग्राहीणि क्षपयति । ' —वही, पत्र ५८९ ३. उत्तरा प्रियदर्शिनीटीका भा. ४, पृ. ३०३, ३०४
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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