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________________ उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम ४७९ प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए विश्वसनीय रूप वाला, अल्प प्रतिलेखन वाला, जितेन्द्रिय तथा विपुल तप एवं समितियों से सम्यक् युक्त (या व्याप्त) होता है। विवेचन–प्रतिरूपता : स्वरूप और परिणाम-प्रतिरूप शब्द के तीन अर्थ यहाँ संगत हैंशान्त्याचार्य के अनुसार- (१) सुविहित प्राचीन मुनियों का रूप, (२) स्थविरकल्पी मुनि के समान वेष वाला, मूलाराधना के अनुसार-(३) जिन के समान रूप (लिंग) धारण करने वाला। प्रतिरूपता के दस परिणाम-(१) लाघव, (२) अप्रमत्त, (३) प्रकटलिंग, (४) प्रशस्तलिंग, (५) विशुद्धसम्यक्त्व, (६) सम्पूर्ण धैर्य-समिति-युक्त, (७) विश्वसनीयरूप, (८) अल्पप्रतिलेखनावान् या अप्रतिलेखनी, (९) जितेन्द्रिय और (१०) विपुल तप और समिति से युक्त।२ ।। स्थानांगसूत्र में पांच कारणों से अचेलक को प्रशस्त कहा गया है-(१) अप्रतिलेखन, (२) प्रशस्तलाघव, (३) वैश्वासिकरूप, (४) तप-उपकरणसंलीनता, (५) विपुल इन्द्रियनिग्रह । इस दृष्टि से यहाँ प्रतिरूप का जिनकल्पीसदृश वेष वाला अर्थ ही अधिक संगत लगता है। तत्त्वं केवलिगम्यम्। ४३. वैयावृत्त्य से लाभ ४४. वेयावच्चेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? वेयावच्चेण तित्थयरनामगोत्तं कम्मं निबन्धइ।। [४४ प्र.] भन्ते ! वैयावृत्य से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] वैयावृत्त्य से जीव तीर्थंकर नाम-गोत्र का उपार्जन करता है। विवेचन-वैयावृत्य का लक्षण और परिणाम-वैयावृत्य का सामान्यतया अर्थ है-नि:स्वार्थ (व्यापृत) भाव से गुणिजनों की आहारादि से सेवा करना। पिछले पृष्ठों में तप के सन्दर्भ में वैयावृत्त्य के सम्बन्ध में विस्तार से कहा जा चुका है। यहाँ वैयावृत्त्य से जो परम उपलब्धि होती है, उसका दिग्दर्शन कराया गया है। तीर्थंकर-पदप्राप्ति के २० हेतु बताए गए हैं, उनमें से एक प्रमुख हेतु वैयावृत्य है। वह पद आचार्यादि १० धर्ममूर्तियों की उत्कटभाव से वैयावृत्त्य करने पर प्राप्त होता है। ४४. सर्वगुणसम्पन्नता के लाभ ४५. सव्वगुणसंपन्नयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? सव्वगुणसंपन्नयाए णं अपुणरावित्तिं जणयइ।अपुणरावित्तिं पत्तए य णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं नो भागी भवइ। १. (क) 'सुविहितप्राचीनमुनीनां रूपे।'-बृहवृत्ति, अ.१ (ख) मूलाराधना २१८३, ८४,८५,८६,८७ (ग) प्रतिः सादृश्ये, ततः प्रतीतिः-स्थविरकल्पिकादिसदृशं रूपं वेषो यस्य स तथा, तद्भावस्तत्ता - उ. अ. २९/४२, पत्र ५८९/५९० २. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र २४२ ३. 'पंचहिं ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवति,तं.-अप्पा पडिलेहा, लाघविए पसत्थे, रूवे वेसासिए, तवे अणुनाते, विउले इंदियनिग्गहे।' -स्थानांग.५/४५५ ४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५९० (ख) ज्ञाताधर्मकथांग, अ.८
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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