SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 567
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६८ उत्तराध्ययनसूत्र १६. प्रायश्चित्तकरण से लाभ १७– पायच्छित्तकरणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ! पायच्छित्तकरणेणं पावकम्मविसोहिं जणयइ, निरइयारे यावि भवइ। सम्मं च णं पायच्छित्तं पडिवजमाणे मग्गं च मग्गफलं च विसोहेइ। आयारं च आयारफलं च आराहेइ॥ [१७ प्र.] भन्ते ! प्रायश्चित्त करने से जीव को क्या लाभ होता है? [उ.] प्रायश्चित्त करने से जीव पापकर्मों की विशुद्धि करता है और उसके (व्रतादि) निरतिचार हो जाते हैं । सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त स्वीकार करने वाला साधक मार्ग और मार्गफल को निर्मल करता है। आचार और आचारफल की आराधना करता है। विवेचन–प्रायश्चित्त : लक्षण–प्राय अर्थात् पाप की, चित्त यानी विशुद्धि को प्रयश्चित्त कहते हैं। मार्ग और मार्गफल के विभिन्न अर्थ—मार्ग-(१) मुक्तिमार्ग, (२) सम्यक्त्व और (३) सम्यक्त्व एवं ज्ञान, मार्गफल–ज्ञान। प्रस्तुत में मार्ग का अर्थ 'सम्यक्त्व' ही उचित है, क्योंकि चारित्र (आचार और आचारफल) की आराधना इसी सूत्र में आगे बताई है। इसलिए दर्शन मार्ग है और उसकी विशुद्धि से ज्ञान विशुद्ध होता है, इसलिए वह (ज्ञान) मार्गफल है। निष्कर्ष यह है कि प्रायश्चित्त से क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की शुद्धि होती है। १७. क्षमापना से लाभ १८.-खमावणयाए णं भन्ते! जीवे किं जणयह? खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ। पल्हायणभावमुवगए य सव्वपाण-भूय-जीवसत्तेसु मित्तीभावमुप्पाएइ। मित्तीभावमुवगए यावि जीवे भावविसोहिं काऊण निब्भए भवइ॥ [१८ प्र.] भन्ते ! क्षामणा—क्षमापणा से जीव को क्या प्राप्त होता है? [उ.] क्षमापणा से जीव को प्रह्लादभाव प्राप्त होता है। प्रह्लादभाव से सम्पन्न साधक सर्व प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के प्रति मैत्रीभाव को प्राप्त होता है। मैत्रीभाव को प्राप्त जीव भावविशुद्धि करके निर्भय हो जाता है। विवेचन–क्षामणा-क्षमापना : तात्पर्य—किसी दुष्कृत या अपराध के अनन्तर गुरु या आचार्य के समक्ष-'गुरुदेव ! मेरा अपराध क्षमा कीजिए, भविष्य में मैं यह अपराध नहीं करूंगा, इत्यादिरूप से क्षमा मांगना क्षामणा और उनके द्वारा क्षमा प्रदान करना 'क्षमापना' है। क्षमापना के तीन परिणाम-क्षमापना के उत्तरोत्तर तीन परिणाम निर्दिष्ट हैं-(१) प्रह्लादभाव, (२) सर्वभूतमैत्रीभाव एवं (३) निर्भयता। भय के कारण हैं-राग और द्वेष, उनसे वैरविरोध की वृद्धि होती है एवं १. 'प्रायः पापं विजानीयात् चित्तं तस्य विशोधनम्।' -बृहवृत्ति, पत्र ५८२ २. मार्गः-इह ज्ञानप्राप्तिहेतुः सम्यक्त्वम्, यद्वा मार्ग चारित्रप्राप्तिनिबन्धतया दर्शनज्ञानाख्यम् अथवा मार्गं च मुक्तिमार्ग क्षायोपशमिकदर्शनादि तत्फलं च ज्ञानम्। -बृहवृत्ति, पत्र ५८३ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८४
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy