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________________ उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम ४६७ १४. स्तव-स्तुतिमंगल से लाभ १५-थव-थुइमंगलेण भन्ते! जीवे किं जणयइ? थव-थुइमंगलेणंनाण-दसण-चरित्त-बोहिलाभंजणयइ।नाण-दसण-चरित्तबोहिलाभसंपन्ने यणं जीवे अन्तकिरियं कप्पविमाणोववत्तिगं आराहणं आराहेइ॥ [१५ प्र.] भगवन् ! स्तव-स्तुति से जीव क्या प्राप्त करता है? _[उ.] स्तव-स्तुति-मंगल से जीव को ज्ञान-दर्शन-चारित्र-स्वरूप बोधिलाभ प्राप्त होता है। ज्ञानचारित्ररूप बोधि के लाभ से सम्पन्न जीव अन्तक्रिया (मुक्ति) के योग्य, अथवा (कल्प) वैमानिक देवों में उत्पन्न होने के योग्य आराधना करता है। विवेचन-स्तव और स्तुति में अन्तर—यद्यपि स्तव और स्तुति, दोनों का अर्थ भक्ति-बहुमानपूर्वक गणोत्कीर्तन करना है. तथापि साहित्य की विशिष्ट परम्परानसार स्तव का अर्थ एक.दो या तीन श्लोक वाला गुणोत्कीर्तन है और स्तुति का अर्थ है-तीन से अधिक अथवा सात श्लोक वाला गुणोत्कीर्तन, अथवा जो शक्रस्तवरूप हो, वह स्तव है और जो इससे ऊर्ध्वमुखी हो कर कथनरूप हो, वह स्तुति है। स्तव और स्तुति दोनों द्रव्यमंगलरूप नहीं, अपितु भावमंगल रूप हैं। ज्ञान-दर्शन-चारित्रबोधिलाभ का तात्पर्य–मतिश्रुतादि ज्ञान, क्षायिक सम्यक्त्वरूप दर्शन, विरतिरूप चारित्र, यों ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप बोधिलाभ अर्थात्-जिनप्ररूपित धर्मबोध की प्राप्ति । १५. कालप्रतिलेखना से उपलब्धि १६-कालपडिलेहणयाए णं भन्ते! जीवे किं जणयइ? कालपडिलेहणयाए णं नाणावरणिज कम्मं खवेइ॥ [१६ प्र.] भंते ! काल की प्रतिलेखना से जीव को क्या उपलब्धि होती है? [उ.] काल की प्रतिलेखना से जीव ज्ञानावरणीयकर्म का क्षय करता है। विवेचन-कालप्रतिलेखना : तात्पर्य और महत्त्व प्रादोषिक, प्राभातिक आदि रूप काल की प्रतिलेखना अर्थात् शास्त्रोक्तविधि से स्वाध्याय, ध्यान, शयन, जागरण, प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण, भिक्षाचर्या आदि धर्मक्रिया के लिए उपयुक्त समय की सावधानी या ध्यान रखना। साधाक के लिए काल का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है। सूत्रकृतांग में बताया गया है कि अशन, पान, वस्त्र, लयन, शयन आदि के काल में अशनादि क्रियाएँ करनी चाहिए। दशर्वकालिक सूत्र में सभी कार्य समय पर करने का विधान है। सामाचारी अध्ययन मुनि को स्वाध्याय आदि के पूर्व दिन और रात्रि में काल की प्रतिलेखा आवश्यक बताई गई है। आचारांगसूत्र में मुनि को 'कालज्ञ' होना अनिवार्य बताया गया है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८१ २. वही, पत्र ५८१ ३. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५८१ (ख) 'अन्नं अन्नकाले, पानं पानकाले, वत्थं वत्थकाले, लेणं लेणकाले, सयण सयणकाले।'-सूत्रकृतांग. २/१/१५ (ग) काले कालं समायरे।-५/२४ (घ) उत्तरा. अ. २६, गा.४६: पडिक्कमित्तु कालस्स, कालं तु पडिलेहए। (ङ) कालण्णू' -आचारांग १ श्रु. अ.८, उ.३
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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