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________________ ४६६ उत्तराध्ययनसूत्र १३–काउस्सग्गेणं भन्ते! जीवे किं जणयइ? कउस्सगेणं ऽतीय-पडुप्पन्नं पायच्छित्तं विसोहेइ। विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे निव्वुयहियए ओहरियभारो व्व भारवहे, पसत्थज्झाणोवगए सुहंसुहेणं विहरइ॥ [१३ प्र.] भन्ते! कायोत्सर्ग से जीव क्या प्राप्त करता है? [उ.] कायोत्सर्ग से अतीत और वर्तमान के प्रयश्चित्तयोग्य अतिचारों का विशोधन करता है। प्रायश्चित्त से विशुद्ध हुआ जीव अपने भार को उतार (हटा) देने वाले भारवाहक की तरह निर्वृत्तहृदय (स्वस्थ-शान्त चित्त) हो जाता है तथा प्रशस्त ध्यान में मग्न हो कर सुखपूर्वक विचरण करता है। १४–पच्चक्खाणेणं! जीवे किं जणयइ? पच्चक्खाणेणं आसवदाराई निरुम्भइ। [१४ प्र.] भन्ते! प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है? [उ.] प्रत्याख्यान से वह आश्रवद्वारों (कमबन्ध के हेतुओं–हिंसादि) का निरोध कर देता है। विवेचन—सामायिक आदि छह आवश्यक (१) सामायिक-समस्त प्राणियों के प्रति समभाव तथा जीवन-मरण, सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, निन्दा-प्रशंसा, मानापमान, शत्रु-मित्र, संयोग-वियोग, प्रियअप्रिय, मणि-पाषाण एवं स्वर्ण-मृत्तिका में समभाव—रागद्वेष का अभाव सामायिक है। इष्ट-अनिष्ट आदि विषमताओं में राग-द्वेष न करना, बल्कि साक्षीभाव से उनका ज्ञाता—द्रष्टा बन कर एकमात्र शुद्ध चैतन्यमात्र (समतास्वभावी आत्मा) में स्थित रहना, सर्व सावद्ययोगों से विरत रहना सामायिक है। (२) चतुर्विंशतिस्तवऋषभदेव से लेकर भ. महावीर तक, वर्तमानकालीन २४ तीर्थंकरों का स्तव अर्थात्-गुणोत्कीर्तन। (३) वन्दना-आचार्य, गुरु आदि की वन्दना-यथोचित-प्रतिपत्तिरूप विनय-भक्ति। (४) प्रतिक्रमण-(१) स्वकृत अशुभयोग से वापिस लौटना, (२) स्वीकृत ज्ञान-दर्शन-चारित्र में प्रमादवश जो अतिचार (दोष) लगे हों, जीव स्वस्थान से परस्थान में गया हो, संयम से असंयम में गया हो, उससे वापिस लौटना, निराकरण करना, निवृत्त होना। (५) कायोत्सर्ग-शरीर का आगमोक्त नीति से (अतिचारों की शुद्धि के निमित्त) उत्सर्ग, ममत्वत्याग करना। (६) प्रत्याख्यान-(१) भविष्य में दोष न हो, उसके लिए वर्तमान में ही कुछ न कुछ त्याग, नियम, व्रत, तप आदि ग्रहण करना, अथवा (२) नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छहों में शुभ मन-वचन-काय से आगामी काल के लिए अयोग्य का त्याग-प्रत्याख्यान करना, (३) अनागत, अतिक्रान्त, कोटिसहित, निखण्डित, साकार, अनाकार, परिमाणगत, अपरिशेष, अध्वगत एवं सहेतुक, इस प्रकार के १० सार्थक प्रत्याख्यान करना। १. (क) मूलाराधना २१/५२२ से ५२६ (ख) धवला ८/३,४१ (ग) अनुयोगद्वार (घ) राजवार्तिक ६/२४|११ (ङ) अमितगतिश्रावकाचार ८/३१ २. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८१ ३. वही, पत्र ५८१ ४. (क) स्वकृतादशुभयोगात् प्रतिनिवृत्तिः प्रतिक्रमणम्। भगवती आराधना वि, ६/३२/१९ (ख) प्रतिक्रम्यते प्रमादकृतदैवसिकादिदोषो निराक्रियतेऽनेनेति प्रतिक्रमणम्। -गोमट्टसार जीवकाण्ड ३३७ ५. काय:शरीरं, तस्योत्सर्ग:-आगमोक्तरीत्या परित्याग कायोत्सर्गः। -बृहद्वत्ति, पत्र ५८१ (क) अनागतदोषापोहनं प्रत्याख्यानम्।-राजवार्तिक ६/२४/११ (ख) णामादीणं छण्णं अजोग्गपरिवज्जणं तिकरणेण। पच्चक्खाणं णेयं अणागयं चागमे काले॥-मूलाराधना २७ (ग) अणागदमदिकंतं कोडीसहिदं निखंडिदं चेव। सागारमणागारं परिमाणगदं अपरिसेसं॥-मूलाराधना ६३७-६३९ ६.
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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