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उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम
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के आवरक परमाणुओं को क्रमशः ज्ञानावरण और दर्शनावरण कहते हैं। सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र का विघातक मोहनीयकर्म कहलाता है और पांच लब्धियों का विघातक अन्तरायकर्म है। ये चारों आत्मा के निजगुणों का घात करते हैं। अतः इस पंक्ति का अर्थ होगा-आत्मा के अनन्त विकास के घातक ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के जो 'पर्यव' हैं अर्थात्-कर्मों की (विशेषतः ज्ञानावरणादि कर्मों की) विशेष परिणतियों का क्षय कर देता है। ८ से १३. सामायिक षडावश्यक से लाभ
९–सामाइएणं भन्ते! जीवे किं जणयइ? सामाइएणं सावजजोगविरइं जणयइ॥ [९ प्र.] भन्ते ! सामायिक से जीव क्या प्राप्त करता है? [उ.] सामाजिक जीव सावधयोगों से विरति को प्राप्त होता है। १०. चउव्वीसत्थएणं भन्ते! जीवे किं जणयइ?
चउव्वीत्थएणं दंसणविसेहिं जणयइ॥ [१० प्र.] भन्ते ! चतुर्विंशतिस्तव से जीव क्या प्राप्त करता है? [उ.] चतुर्विंशतिस्तव से जीव दर्शन-विशोधि प्राप्त करता है। ११-वन्दणएणं भन्ते! जीवे किं जणयइ?
वन्दणएणं नीयागोयं कम्मं । उच्चागोयं निबन्धइ।सोहग्गंचणं अप्पडिहयं आणाफलं निव्वत्तेइ, दाहिणभावं च णं जणयड।
[११ प्र.] भन्ते ! वन्दना से जीव क्या उपलब्ध करता है?
[उ.] वन्दना से जीव नीचगोत्रकर्म का क्षय करता है, उच्चगोत्र का बन्ध करता है। वह अप्रतिहत सौभाग्य को प्राप्त करता है, उसकी आज्ञा (सर्वत्र) अबाधित होती है (अर्थात्-आज्ञा शिरोधार्य हो, ऐसा फल प्राप्त होता है) तथा दाक्षिण्यभाव (जनता के द्वारा अनुकूलभाव) को प्राप्त करता है।
१२–पडिक्कमणेणं भन्ते! जीवे किं जणयइ?
पडिक्कमणेणं वयछिद्दाई पिहेइ।पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे, असबलचरित्ते, अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ॥
[१२ प्र.] भन्ते ! प्रतिक्रमण से जीव को क्या प्राप्त होता है?
[उ.] प्रतिक्रमण से जीव स्वीकृत व्रतों के छिद्रों को बंद कर देता है। व्रत-छिद्रों को बंद कर देने वाला जीव आश्रवों का निरोध करता है, उसका चारित्र धब्बों (अतिचारों) से रहित (निष्कलंक) होता है, वह अष्ट प्रवचनमाताओं के आराधन में सतत उपयुक्त (सावधान) रहता है तथा (संयम-योग में) अपृथक्त्व (एकरस तल्लीन) हो जाता है तथा सम्यक् समाधियुक्त हो कर विचरण करता है। १. ".........ज्ञानावरणीयादिकर्मणः तद्घातित्वलक्षणान् परिणतिविशेषान् (पर्यवान्) क्षपयति क्षयं नयति।"
-बृहद्वृत्ति, पत्र ५८०