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________________ ४६४ उत्तराध्ययनसूत्र उपशमश्रेणि से मोह का सर्वथा उद्धात नहीं होता। इसलिए यहाँ क्षपकश्रेणि ही ग्राह्य है। क्षपकश्रेणि में मोह क्षीण होते-होते अन्त में सर्वथा क्षीण हो जाता है, मोह का एक दलिक भी शेष नहीं रहता। क्षपकश्रेणि आठवें गुणस्थान से प्रारम्भ होती है। आध्यात्मिक विकास की इस भूमिका का नाम अपूर्वकरणगुणस्थान है। यहाँ परिणामों की धारा इतनी विशुद्ध होती है, जो पहले कभी नहीं हुई थी, इसी कारण यह 'अपूर्वकरण' कहलाती है। आगामी क्षणों में उदित होने वाले मोहनीयकर्म के अनन्तप्रदेशी दलिकों को उदयकालीन प्राथमिक क्षण में ला कर क्षय कर देना भावविशुद्धि की एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। प्रथम समय से दूसरे समय में कर्म-पुद्गलों का क्षय असंख्यातगुण अधिक होता है। दूसरे से तीसरे समय में असंख्यातगुण अधिक और तीसरे से चौथे में असंख्यातगुण अधिक। इस प्रकार कर्मनिर्जरा की यह तीव्रगति प्रत्येक समय से अगले समय में असंख्यातगुणी अधिक होती जाती है। कर्मनिर्जरा की यह धारा असंख्यातसमयात्मक एक अन्तर्मुहूर्त तक चलती है। इस प्रकार मोहनीयकर्म निर्वीर्य बन जाता है। इसे ही जैन परिभाषा में क्षपकश्रेणी कहते हैं। क्षपकश्रेणी से ही केवलज्ञान प्राप्त होता है। ७. गर्हणा से लाभ ८-गरहणयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ? गरहणयाए णं अपुरक्कारं जणयइ।अपुरक्कारगएणं जीवे अप्पसत्थेहितो जोगेहितो नियत्तेइ। पसत्थजोग-पडिवन्ने यणं अणगारे अणन्तघइपज्जवे खवे॥ [८ प्र.] भन्ते ! गर्हणा (गर्हा) से जीव क्या प्राप्त करता है? (उ.) गर्हणा से जीव को अपुरस्कार प्राप्त होता है। अपुरस्कार प्राप्त जीव अप्रशस्त योग (मन-वचनकाया के व्यापारों) से निवृत्त होता है और प्रशस्त योगों में प्रवृत्त होता है। प्रशस्त-योग प्राप्त अनगार अनन्त (ज्ञान-दर्शन-) घाती पर्यायों (ज्ञानावरणीयादि कर्मों के परिणामों) का क्षय करता है। विवेचनगर्हणा (गाँ): लक्षण-(१) दूसरों के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना, (२) गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना, (३) प्रमादरहित होकर अपनी शक्ति के अनुसार उन कर्मों के क्षय के लिए पंचपरमेष्ठी के समक्ष आत्मसाक्षी से उन रागादि भावों का त्याग करना गर्दा है। अपुरस्कार-अपुरस्कार--यह गुणवान् है, इस प्रकार का गौरव देना पुरस्कार है। इस प्रकार के पुरस्कार का अभाव अर्थात् गौरव का न होना अपुरस्कार है। अप्पसत्येहितो: आशय-गौरव-भाव से रहित व्यक्ति कर्मबन्ध के हेतुभूत अप्रशस्त गुणों से निवृत्त होता है। अणंतघाइपजवे : आशय-ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य, आत्मा के ये गुण अनन्त हैं । ज्ञान और दर्शन १. (क) करणेन-अपूर्वकरणेन गुणहेतुका श्रेणिः करणगुणश्रेणिः। (ख) प्रक्रमात् क्षपकश्रेणिरेव गृह्यते। -बृहवृत्ति, पत्र ५८० (ग) प्रक्रमात् क्षपकश्रेणि। सर्वार्थसिद्धि २. (क) बृहवृत्ति, पत्र ५८० (ख) 'गुरुसाक्षिदोषप्रकटनं गर्दा।'-समयसार ता. व. ३०६ (ग) पंचाध्यायी, उत्तरार्द्ध ४७४ : गर्हणं तत्परित्यागः पंचगुर्वात्मसाक्षिकः। निष्प्रमादतया नूनं शक्तितः कर्महानये॥
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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