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________________ उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम मिथ्यादर्शनरूप शल्य को निकाल देता है और ऋजुभाव को प्राप्त होता है। ऋजुभाव को प्राप्त जीव मायारहित होता है । अत: वह स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का बन्ध नहीं करता, यदि पूर्वबद्ध हो तो उसकी निर्जरा करता है । विवेचन — आलोचना - (१) गुरु के समक्ष अपने दोषों का प्रकाशन, अथवा (२) अपने दैनिक जीवन में लगे हुए दोषों का स्वयं निरीक्षण – स्वावलोकन, आत्मसम्प्रेक्षण, (३) गुणदोषों की समीक्षा । १ तीन शल्य- शल्य कहते हैं— तीखे कांटे, तीक्ष्ण बाण या अन्तर्व्रण ( अन्दर के घाव ), अथवा पीड़ा देने वाली वस्तु को । जैनागमों में शल्य के तीन प्रकार बताए गये हैं— माया, निदान और मिथ्यादर्शन। माया, निदान और मिथ्यादर्शन, इन तीनों शल्यों की जिन से उत्पत्ति होती है, ऐसे कारणभूत कर्म को द्रव्य शल्य और इनके उदय से होने वाले जीव के माया, निदान एवं मिथ्यादर्शन परिणाम को भावशल्य कहते हैं । माया - बाहर से साधुवेष और अन्तर में वंचकभाव या दूसरों को प्रसन्न करने की वृत्ति । निदान — तप, धर्माचरण आदि की वैषयिक फलाकांक्षा और मिथ्यादर्शन — धर्म, जीव, साधु, देव और मुक्ति आदि को विपरीतरूप में जानना मानना । ये तीनों मोक्षपथ में विघ्नकर्ता हैं। इन्हें आलोचनाकर्ता उखाड़ फैंकता है। २ ६. निन्दना से लाभ - निन्दणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? ४६३ ७ निन्दणयाए णं पच्छाणुतावं जणयइ । पच्छाणुतावेणं विरज्जमाणे करणगुणसेढिं पडिवज्जइ करणगुणसेटिं पडिवन्ने य णं अणगारे मोहणिजं कम्मं उग्घाए । [७ प्र.] भंते! निन्दना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? (उ.) निन्दना से पश्चात्ताप होता है । पश्चात्ताप से विरक्त होता हुआ व्यक्ति करणगुणश्रेणि को प्राप्त होता है। करणगुणश्रेणि-प्रतिपन्न अनगार मोहनीय कर्म का क्षय करता है। विवेचन — निन्दना – (१) स्वयं के द्वारा स्वयं के दोषों का तिरस्कार, (२) आत्मसाक्षीपूर्वक स्वयं किये हुए दोषों को प्रकट करना, या उन-सम्बन्धी पश्चात्ताप करना, (३) स्वदोषों का पश्चात्ताप करना । करणगुणश्रेणि: व्याख्या- ' करणगुणश्रेणि' शब्द एक पारिभाषिक शब्द है । उसका अर्थ हैअपूर्वकरण (पहले कदापि नहीं प्राप्त मन के निर्मल परिणाम) से होने वाली गुणहेतुक कर्मनिर्जरा की श्रेणि । करण आत्मा का विशुद्ध परिणाम है। करणश्रेणि का अर्थ यहाँ प्रसंगवश क्षपक श्रेणि है। मोहनाश की दो प्रक्रियाएँ हैं— उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणि। जिससे मोह का क्रम से उपशम होते-होते अन्त में सर्वथा उपशान्त हो जाता है, अन्तर्मुहूर्त के लिए उसका उदय आना बन्द हो जाता है, उसे उपशमश्रेणि कहते हैं । (ख) संपिक्खए अप्पगमप्पएणं । —दशवैकालिक अ. ९, उ. ३ १. (क) उत्तरा (गु भाषान्तर) भा. २, पत्र २३७ (ग) आलोचना — गुणदोषसमीक्षा । २. (क) सर्वार्थसिद्धि ७/१८/३५६ ३. (क) उत्तरा . बृहद्वृत्ति, पत्र ५८० (ग) पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध (ख) भगवती आराधना २५/८८ (ख) 'आत्मसाक्षि - दोषप्रकटनं निन्दा । - समयसार तात्पर्यवृत्ति ३०६ / ३८८/१२ ।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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