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उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम
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आत्मा की प्रसन्नता नष्ट हो जाती है। अतः क्षमापना ही इन सबको टिकाए रखने के लिए सर्वोत्तम उपाय है। १८ से २४. स्वाध्याय एवं उसके अंगों से लाभ
१९-सज्झाएणं भन्ते! जीवे किं जणयइ? सज्झाएणं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ॥ [१९ प्र.] भन्ते! स्वाध्याय से जीव को क्या प्राप्त होता है? [उ.] स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीयकर्म का क्षय करता है। २०- वायणाए णं भन्ते! जीवे किं जणयइ?
वायणाए णं निजरं जणयइ। सुयस्स य अणासायणाए वट्टए सुयस्स अणासायणाए वट्टमाणे तित्थधम्मं अवलम्बइ। तित्थधम्मं अवलम्बमाणे महानिजरे महापज्जवसाणे भवइ॥
[२० प्र.] भन्ते! वाचना से जीव को क्या लाभ होता है?
[उ.] वाचना से जीव कर्मों की निर्जरा करता है, श्रुत (शास्त्रज्ञान) की आशातना से दूर रहता है। श्रुत की अनाशातना में प्रवृत्त हुआ जीव तीर्थधर्म का अवलम्बन लेता है। तीर्थधर्म का अवलम्बन लेने वाला साधक (कर्मों की) महानिर्जरा और महापर्यवसान करता है।
२१–पडिपुच्छणयाए णं भन्ते! जीवे किं जणयइ? पडिपुच्छणयाए णं सुत्तऽत्थतदुभयाइं विसोहेइ। कंखमोहणिज कम्मं वोच्छिन्दइ॥ [२१ प्र.] भन्ते! प्रतिपृच्छना से जीव को क्या प्राप्त होता है?
[उ.] प्रतिपृच्छना से जीव सूत्र, अर्थ और तदुभय (-दोनों) को विशुद्ध कर लेता है तथा कांक्षामोहनीय को विच्छिन्न कर देता है।
२२–परियट्टणए णं भन्ते! जीवे किं जणयइ? परियट्टणाए णं वंजणाई जणयइ, वंजणलद्धिं च उप्पाएइ॥ [२२ प्र.] भन्ते ! परावर्तना से जीव को क्या प्राप्त होता है? [उ.] परावर्त्तना से व्यञ्जनों की उपलब्धि होती है और जीव व्यञ्जनलब्धि को प्राप्त करता है। २३. –अणुप्पेहाए णं भन्ते! जीवे किं जणयइ?
अणुप्पेहाएणं आउयवजाओ सत्तकम्मप्पगडीओ धणियबन्धणबद्धाओ सिढिलबन्धणबद्धाओ पकरेइ। दीहकालट्ठिइयाओ हस्सकालट्ठियाओ पकरेइ। तिव्वाणुभावाओ मन्दाणुभावाओ पकरेइ। बहुपएसग्गाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ। आउयं च णं कम्मं सिय बन्धइ, सिय नो बन्धइ। असायावेयणिजं चणं कम्मं नो भुजो भुजो उवचिणाइ।अणाइयं चणं अणवदग्गंदीहमद्धं चाउरन्तं संसारकन्तारं खिप्पामेव वीइवयइ॥
[२३ प्र.] भन्ते ! अनुप्रेक्षा से जीव को क्या प्राप्त होता है?
[उ.] अनुप्रेक्षा से आयुष्यकर्म को छोड़ कर शेष ज्ञानावरणीय आदि सात कर्मों की प्रकृतियों के १. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ४, पृ. २६१-२६२