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उत्तराध्ययनसूत्र
अथवा परम उत्साह होना, अथवा धार्मिक पुरुषों के प्रति अनुराग, पंचपरमेष्ठी में प्रीति होना संवेग है। (६) तत्त्व, धर्म, हिंसा से विरति, राग-द्वेष-मोहादि से रहित देव एवं समस्त ग्रन्थों से रहित निर्ग्रन्थ गुरु में अविचल अनुराग होना भी संवेग है।
संक्षेप में संवेग फल-(१) उत्कृष्ट धर्मश्रद्धा, (२) परमधर्मरुचि से मोक्षाभिलाषा (संसारदुःखभीरुता), (३) अनन्तानुबन्धीकषायक्षय, (४) नवकर्मबन्धन-निरोध, (५) मिथ्यात्वक्षय से क्षायिक निरतिचार सम्यग्दर्शन का आराधन होना, (६) सम्यक्त्वविशुद्धि से आत्मा निर्मल हो जाने पर या तो उसी भव में या तीसरे भव तक में अवश्य मुक्ति की प्राप्ति।
सम्यक्त्व के पांच लक्षणों में दूसरा लक्षण है। सम्यक्त्व के लिए इसका होना अनिवार्य है।
नवं च कम्मं न बंधइ : आशय—इस पंक्ति का आशय है कि यह तो नहीं कहा जा सकता है कि सम्यग्दृष्टि के अशुभकर्म का बन्ध नहीं होता बल्कि कषायजनित अशुभकर्मबन्ध चालू रहता है । अत: इस पंक्ति का आशय शान्त्याचार्य के अनुसार यह है कि जिसके अनन्तानुबन्धीचतुष्टय सर्वथा क्षीण हो जाता है, जिसका दर्शन विशुद्ध हो जाता है, उसके नये सिरे से मिथ्यादर्शनजनित कर्मबन्ध नहीं होता। २. निर्वेद से लाभ
३—निव्वेएणं भन्ते! जीवे किं जणयइ?
निव्वेएणं दिव्व-माणुस-तेरिच्छिएसु कामभोगेसुनिव्वेयं हव्व मागच्छइ।सव्वविसएसु विरजइ। सव्वविसएसु विरजमाणे आरम्भपरिच्चायं करेइ। आरम्भपरिच्चायं करेमाणे संसारमग्गं वोच्छिन्दइ, सिद्धिमग्गे पडिवन्ने य भवइ॥
[३ प्र.] भंते ! निर्वेद से जीव क्या प्राप्त करता है?
[उ.] निर्वेद से जीव देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी कामभोगों से शीघ्र ही विराग को प्राप्त होता है, (क्रमशः) सभी विषयों से विरक्त हो जाता है समस्त विषयों से विरक्त होकर वह आरम्भ का त्याग कर देता है। आरम्भपरित्याग करके संसारमार्ग का विच्छेद करता है और सिद्धिमार्ग को प्राप्त होता है।
विवेचन—निर्वेद के लक्षण-(१) संसार-विषयों के त्याग की भावना, (२) संसार से वैराग्य, (३) संसार से उद्विग्नता, (४) संसार-शरीर-भोग-विरागता, (५) समस्त अभिलाषाओं का त्याग, (६) संवेग १. (क) आचारांगचूर्णि १/४३ (ख) दशवकालिक १ अ. टीका (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र ५७७
(घ) नारकतिर्यग्मनुष्यदेवभवरूपात् संसारदुःखान्नित्यभीरुता संवेगः। -सर्वार्थसिद्धि ६/२४ (ङ) द्रव्यसंग्रहटीका ३५/११२/७ (च) पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध ४३१:
संवेगः परमोत्साहो धर्मे धर्मफले चित्तः।
सधर्मेष्वनुरागो वा, प्रीतिर्वा परमेष्ठिषु ।। (छ) तथ्ये धर्मे ध्वस्तहिंसाप्रबन्धे, देवे राग-द्वेष-मोहादिमुक्ते।
साधौ सर्वग्रन्थसन्दर्भहीने, संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः॥ -योगविंशिका २. बृहद्वृत्ति, पत्र ५७७-५७८ (सारांश) ३. वही, पत्र ५७८