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उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम
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विधिरूप होता है, निर्वेद निषेधात्मक।
निर्वेद फल-(१) सर्व कामभोगों तथा विषयों से विरक्ति, (२) विषयविरक्ति के कारण आरम्भपरित्याग, (३) आरम्भ-परित्याग के कारण संसारपरिभ्रमणमार्ग का विच्छेद और (४) अन्त में सिद्धिमार्ग की प्राप्ति। ३. धर्मश्रद्धा का फल
४-धम्मसद्धाए णं! जीवे किं जणयइ?
धम्मसद्धाए णं सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ। आगारधम्मं च णं चयइ। अणगारे णं जीवे सारीर-माणसाणं दुक्खाणं छेयण-भेयण-संजोगाईणं वोच्छेयं, अव्वाहबाहं च सुहं निव्वत्तेइ॥
[४ प्र.] भंते ! धमश्रद्धा से (जीव) साता-सुखों, अर्थात्-सातावेदनीय कर्मजनित वैषयिक सुखों की आसक्ति से विरक्त हो जाता है, आगारधर्म (गृहस्थसंबंधी प्रवृत्ति) का त्याग करता है। अनगार हो कर जीव छेदन-भेदन आदि शारीरिक तथा संयोग आदि मानसिक दुःखों का विच्छेद (विनाश) कर डालता है और अव्याबाध सुख को प्राप्त करता है।
विवेचन-धर्मश्रद्धा का अर्थ है-श्रुतचारित्ररूप धर्म का आचरण करने की अभिलाषा, तीव्र धर्मेच्छा। रजमाणे विरजइ—पहले राग (विषयसुखों के प्रति आसक्ति) करता हुआ विरक्त हो जाता है।
छेयण-भेयण-संजोगाईणं-छेदन-तलवार आदि से टुकड़े कर देना, काटना । भेदन का अर्थ हैभाले आदि से फाडना (विदारण) करना। संयोग -अनिष्टसम्बन्ध, आदि शब्द से इष्टवियोग अनिष्टसंयोग आदि।
तीव्र धर्मश्रद्धाका महाफल-व्यवहारसत्र के अनसार तीव्र धर्मश्रद्धा स्वभावतः असंसर्गकारिणी होती है. उससे बन्धन सर्वथा छिन्न हो जाते हैं. अर्थात-धर्मश्रद्धावान सर्वत्र ममत्वरहित हो जाता है। ऐसा साधक अकेला हो या परिषद् में, सर्वत्र, सभी परिस्थितियों में आत्मा की रक्षा करता है। ४. गुरु-साधर्मिक-शुश्रूषा का फल
५.-गुरु-साहम्मियसुस्सूसणयाए णं भंते। जीवे किं जणयइ!
गुरु-साहम्मियसुस्सूसणयाए णं विणयपडिवतिं जणयइ।विणयपडिवन्ने यणं जीवे अणच्चा१. (क) बृहद्वृत्ति ५७८-............निर्वेदेन—सामान्यतः संसारविषयेण कदाऽसौ त्यक्ष्यामीत्येवंरूपेण.....। (ख) बृहत्कल्प ३ उ.
(ग) उत्तरा. अ. १८ वृत्ति (घ) “निर्वेदः संसार-शरीर-भोगविरागतः।' -मोक्षप्राभृत ८२ टीका (ङ) त्यागः सर्वाभिलाषस्य निर्वेदो.........' -पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध ४४३ (च) वही, गा. ४४२ उत्तरा. बृहवृत्ति, पत्र ५७८ (सारांश) ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५७८ ४. वही, पत्र ५७८ छेदनं-खड्गादिना द्विधाकरणम्, भेदनं-कुन्तादिना विदारणम्, आदि शब्दस्यहापि सम्बन्धात् ताडनादयश्च गृह्यते।.....संयोगः-प्रस्तावादनिष्टसम्बन्धः। आदि शब्दादिष्टवियोगादिग्रहः। ततः छेदनभेदनादिना शारीरिकदुःखानां, संयोगादिना मानसदु:खानां व्यवच्छेदः। -बृहवृत्ति, पत्र ५७८ निस्सग्गुसग्गकारी य, सव्वतो छिन्नबंधणा। एगो वा परिसाए वा अप्पाणं सोऽभिरक्खइ॥-व्यवहारसूत्र, उ.१