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________________ उनतीसवाँ अध्ययन सम्यक्त्व पराक्रम ४५९ जीवन के अन्तिम क्षण तक पार लगा कर, (८) कित्तइत्ता - उसका कीर्त्तन—गुणानुवाद करके अथवा स्वाध्याय करके, ( ९ ) सोहइत्ता — फिर अध्ययन में कथित कर्त्तव्य का आचरण करके उन उन गुणस्थानों को प्राप्त करके उत्तरोत्तर शुद्ध करके, (१०) आराहित्ता — फिर उत्सर्ग और अपवाद में कुशलता प्राप्त करके आजीवन उस ताव का सेवन करके, (११) आणाए अणुपालइत्ता — तदनन्तर गुरु आज्ञा से सतत अनुपालनसेवन करके, अथवा — मन-वचन-कायरूप त्रियोग (चिन्तन, भाषण और रक्षण) से स्पर्श करके, इसी प्रकार त्रियोग से पालन करके, या आवृत्ति से रक्षा करके, गुरु के समक्ष यह निवेदन (कीर्त्तन) करके कि मैंने इसे इस प्रकार पढ़ा है तथा गुरु की तरह अनुभाषणादि से शुद्ध करके, उत्सूत्रप्ररूपणादि दोषों के परिहारपूर्वक आराधना करके। यह प्रस्तुत अध्ययन में पराक्रम का क्रम है। इस क्रम से सम्यक्त्व पर पराक्रम करने पर जीव सिद्ध होते हैं, सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, बुद्ध होते हैं— घातिकर्मों के क्षय से बोध — केवल - ज्ञान पाते हैं, मुक्त होते हैं—भवोपग्राही शेष चार कर्मों के क्षय से मुक्त हो जाते हैं, फिर परिनिर्वृत्त (परिनिर्वाण प्राप्त) होते हैं, अर्थात् समग्र कर्मरूपी दावानल की शान्ति से शान्त हो जाते हैं और इस कारण (शारीरिक-मानसिक) समस्त दुःखों का अन्त करते हैं अर्थात् मुक्तिपद प्राप्त करते हैं। अध्ययन में वर्णित अर्थाधिकार — प्रस्तुत अध्ययन में संवेग से लेकर अकर्मता तक ७३ बोलों के स्वरूप और अप्रमादपूर्वक की गई उक्त बोलों की साधना से होने वाले फलों की चर्चा की गई है। २ १. संवेग का फल २ – संवेगेणे भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं जणयइ । अणुत्तराए धम्मसद्धाए संवेगं हव्वमागच्छइ । अणन्ताणुबन्धिकोह - माण- माया - लोभे खवेइ । नवं च कम्मं न बन्धइ। तप्पच्चइयं च णं मिच्छत्तविसोहिं काऊण दंसणाराहए भवइ । दंसणविसोहीए य णं विसुद्धाए अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ । सोहीए य विसुद्धा तच्चं पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ ॥ [२ प्र.] भन्ते ! संवेग से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] संवेग से जीव अनुत्तर धर्मश्रद्धा को प्राप्त करता है। अनुत्तर धर्मश्रद्धा से शीघ्र ही संवेग आता है । (तब जीव) अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है और नए कर्मों का बन्ध नहीं करता। उस (अनन्तानुबन्धीकषायक्षय — ) निमित्तक मिथ्यात्व - विशुद्धि करके (जीव) सम्यग्दर्शन का आराधक हो जाता है। दर्शनविशोधि के द्वारा विशुद्ध होकर कई जीव उसी भव (जन्म) से सिद्ध (मुक्त) हो जाते हैं। (दर्शन) विशोधि से विशुद्ध होने पर (आयुष्य के अल्प रह जाने से जिनके कुछ कर्म बाकी रह जाते हैं, वे ) भी तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते (अर्थात् तीसरे भव में अवश्य ही मोक्ष चले जाते हैं) । विवेचन-संवेग के विविध रूप – (१) सम्यक् उद्वेग अर्थात् मोक्ष के प्रति उत्कण्ठा संवेग, (२) मनुष्यजन्म और देवभव के सुखों के परित्यागपूर्वक मोक्षसुखाभिलाषा, (३) मोक्षाभिलाषा, (४) नारक, तिर्यञ्च मनुष्य देवभवरूप संसार के दुःखों से नित्य डरना, (५) धर्म में, धर्मफल में, अथवा दर्शन में हर्ष १. बृहद्वृत्ति, अभि. रा. कोष भा. ७, पृ. ५०७ २. वही, सारांश, भा. ७ पृ. ५०४
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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